धरि लात विघ्न अनेक पै निरभय न उद्यम ते टरै।
जे पुरुष उत्तम अंत में ते सिद्ध सब कारज करै॥
और भी---
का सेसहि नहिं भार पै धरती देत न डारि।
कहा दिवसमनि नहिं थकत पै नहिं रुकत विचारि॥
सजन ताको हित करत जेहि किय अंगीकार।
यहै नेम सुकृतीन को निज जिय करहु विचार॥
राक्षस---मित्र! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं प्रारब्ध के भरोसे नहीं हूँ? हॉ, फिर।
विराध०---तब से दुष्ट चाणक्य चंद्रगुप्त की रक्षा में चौकन्ना रहता है और इधर-उधर के अनेक उपाय सोचा करता है और पहिचान-पहिचान के नंद के मित्रो को पकड़ता है।
राक्षस---( घबड़ाकर ) हाँ! कहो तो, मित्र! उसने किसे-किसे पकड़ा है?
विराध०---सबके पहिले तो जीवसिद्धि क्षपणक को निरादर करके नगर से निकाल दिया।
राक्षस---( आप ही आप ) भला, इतने तक तो कुछ चिंता नहीं, क्योंकि वह योगी है उसका घर बिना जी न घबड़ायगा। ( प्रकाश ) मित्र! उस पर अपराध क्या ठहराया?
विराध०---कि इसी दुष्ट ने राक्षस को भेजी विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला।