राक्षस---( आप ही आप ) वाह रे कौटिल्य वाह! क्यो न हो?
निज कलंक हम पै धरयौ, हत्यौ अर्द्ध बँटवार।
नीतिबीज तुव एक ही फल उपजवत हजार॥
( प्रकाश ) हॉ, फिर?
विराध०---फिर चद्रगुप्त के नाश को इसने दारुर्मादिक नियत किए थे यह दोष लगाकर शकटदास को शूली दे दी।
राक्षस---( दुःख से ) हा मित्र शकटदास! तुम्हारी बड़ी अयोग्य मृत्यु हुई। अथवा स्वामी के हेतु तुम्हारे प्राण गए। इससे कुछ सोच नहीं है, सोच हमीं लोगो का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते है।
विराध०---मत्री! ऐसा न सोचिए, आप स्वामी का काम कीजिए।
राक्षस---मित्र!
केवल है यह सोक, जीव लोभ अब लौं बचे।
स्वामि गयो परलोक, पै कृतघ्न इतही रहे॥
विराध०---महाराज! ऐसा नहीं। ('केवल है यह' ऊपर का छंद फिर से पढ़ता है )*
राक्षस---मित्र! कहो, और भी सैकड़ो मित्रों का नाश सुनने को ये पापी कान उपस्थित हैं।
- अर्थात् जो लोग जीवलोम से बचे हैं, वे कृतघ्न हैं, आप तो
स्वामी के कार्य-साधन को जीते हैं, आप क्यों कृतन हैं।