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भारतेंदु-नाटकावली

विराध०---महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन मार सकता है?

राक्षस---प्रियंबदक! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झटपट लाता क्यों नहीं?

प्रियं०---जो आज्ञा।

[ जाता है

( सिद्धार्थक के संग शकटदास आता है )

शकटदास---( देखकर आप ही आप )

वह सूली गड़ी जो बड़ी दूढ कै,
सोइ चंद्र को राज थिलो प्रन ते।
लपटी वह फॉस की डोर सोई,
मनु श्री लपटी वृषलै मन तें॥
बजी डौंड़ी निरादर की नृप नंद के,
सोऊ लख्यो इन ऑखन तें।
नहिं जानि परै इतनोहू भए,
केहि हेतु न प्रान कढ़े तन तें॥

( राक्षस को देखकर ) यह मंत्री राक्षस बैठे हैं। अहा!

नंद गए हू नहिं तजत प्रभुसेवा को स्वाद।
भूमि बैठि प्रगटत मनहुँ स्वामिभक्त-मरजाद॥

( पास जाकर ) मंत्री की जय हो।

राक्षस---( देखकर आनंद से ) मित्र शकटदास! आओ, मुझसे