पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५६
भारतेंदु-नाटकावली

इसी से वे भी मलयकेतु के पास चले गए, बस, यही उन लोगो की उदासी का कारण है।

चंद्र०---आर्य! जब इन सबके भागने का उद्यम जानते ही थे तो क्यों न रोक रखा?

चाणक्य---ऐसा कर नहीं सके।

चंद्र०---क्या आप इसमें असमर्थ हो गए वा कुछ उसमें भी प्रयोजन था?

चाणक्य---असमर्थ कैसे हो सकते हैं? उसमें भी कुछ प्रयोजन ही था।

चंद्र०---आर्य! वह प्रयोजन मैं सुनना चाहता हूँ।

चाणक्य---सुनो और भूल मत जाओ।

चंद्र०---आर्य! मैं सुनता हई हूँ, भूलूँगा भी नहीं, कहिए।

चाणक्य---अब जो लोग उदास हो गए हैं या बिगड़ गए हैं उनके दो ही उपाय हैं, या तो फिर से उन पर अनुग्रह करें या उनको दंड दें और भद्रभट, पुरुषदत्त से जो अधिकार ले लिया गया है तो अब उन पर अनुग्रह यही है कि फिर उनको उनका अधिकार दिया जाय; और यह हो नहीं सकता, क्योंकि उनको मृगया, मद्यपानादिक का जो व्यसन है इससे इस योग्य नहीं हैं कि हाथी, घोड़ों को सम्हालें और सब सेना की जड़ हाथी घोड़े ही हैं। वैसे ही हिंगुरात, बलगुप्त को कौन प्रसन्न कर सकता है,