क्योकि उनको सब राज्य पाने से भी संतोष न होगा, और राजसेन और भागुरायण तो धन और प्राण के डर से भागे हैं; ये तो प्रसन्न होई नहीं सकते, और रोहिताक्ष, विजयवर्मा का तो कुछ पूछना ही नहीं है, क्योकि वे तो और नातेदारो के मान से जलते हैं और उनका कितना भी मान करो, उन्हे थोड़ा ही दिखलाता है; तो इसका क्या उपाय है। यह तो अनुग्रह का वर्णन हुआ, अब दंड का सुनिए। यदि हम इन सबो को प्रधान पद पाकर के जो बहुत दिनो से नंदकुल के सर्वदा शुभाकांक्षी और साथी रहे दंड देकर दुखी करें तो नंदकुल के साथियो का हम पर से विश्वास उठ जाय, इससे छोड़ ही देना योग्य समझा, सो इन्हीं सब हमारे भृत्यों को पक्षपाती बनाकर राक्षस के उपदेश से म्लेच्छराज की बड़ी सहायता पाकर और अपने पिता के वध से क्रोधित होकर पर्वतक का पुत्र कुमार मलयकेतु हम लोगो से लड़ने को उद्यत हो रहा है, सो यह लड़ाई के उद्योग का समय है उत्सव का समय नहीं। इससे गढ़ के संस्कार के समय कौमुदी-महोत्सव क्या होगा, यही सोच कर उसका प्रतिषेध कर दिया।
चंद्र०---आर्य! मुझे अभी इसमें बहुत कुछ पूछना है।
चाणक्य---भली भाँति पूछो, क्योकि मुझे भी बहुत कुछ कहना है।