चंद्र०---यह पूछता हूँ---
चाणक्य---हाँ! मैं भी कहता हूँ।
चंद्र०---यह कि हम लोगों के सब अनर्थों की जड़ मलयकेतु है; उसे आपने भागते समय क्यों नहीं पकड़ा?
चाणक्य---वृषल! मलयकेतु के भागने के समय भी दो ही उपाय थे---या तो मेल करते या दंड देते। जो मेल करते तो आधा राज देना पड़ता और जो दंड देते तो फिर यह हम लोगों की कृतघ्नता सब पर प्रसिद्ध हो जाती कि इन्हीं लोगों ने पर्वतक को भी मरवा डाला और जो आधा राज देकर अब मेल कर ले तो उस बिचारे पर्वतक के मारने का पाप ही पाप हाथ लगे। इससे मलयकेतु को भागते समय छोड़ दिया।
चंद्र०---और भला राक्षस इसी नगर में रहता था, उसका भी आपने कुछ न किया इसका क्या उत्तर है?
चाणक्य---सुनो, राक्षस अपने स्वामी की स्थिर भक्ति से और यहाँ बहुत दिन रहने से यहाँ के लोगों का और नंद के सब साथियों का विश्वासपात्र हो रहा है और उसका स्वभाव सब लोग जान गए हैं। उसमें बुद्धि और पौरुष भी है, वैसे ही उसके सहायक भी हैं और कोषबल भी है, इससे जो वह यहाँ रहे तो भीतर के सब लोगों को फोड़कर उपद्रव करे और जो यहाँ से दूर रहे तो