जिनमें प्रथम को मात्रा बहुत बढ़ गई है। इसके प्रधान नायक राजा हरिश्चन्द्र धीरोदात्त प्रतापी राजर्षि हैं। विश्वामित्र का राजा हरिश्चन्द्र को सत्यभ्रष्ट करने की प्रतिज्ञा करना बीज है। स्वप्न में पृथ्वी दान लेकर तथा सशरीर पहुँच कर उसपर अधिकार करना और दक्षिणा के बहाने राजा हरिश्चन्द्र को राज्यभ्रष्ट तथा शारीरिक स्वातंत्र्य-भ्रष्ट करना विंदु है। विश्वामित्र के प्रयत्नों का निष्फल होना पताका है। रोहिताश्व का दंशित होकर स्मशान में लाया जाना प्रकरी है। सत्य की परीक्षा में उत्तीर्ण होना कार्य है।
इसमें प्रासंगिक कथावस्तु प्रायः नहीं सा है और जो कुछ है वह भी आधिकारिक कथा के सौंदर्य को बढ़ाने के लिए प्रयुक्त हुआ है। कथावस्तु का आरंभ, मध्य तथा अंत सुचारु रूप से हुआ है। इन्द्र, नारद तथा विश्वामित्र के संवाद से नाटक के उद्देश्य और घटनाक्रम का पूरा ज्ञान कराते हुए नाटक का आरंभ होता है। दूसरे अंक में रवप्न में किए गए दान को सत्य मान कर विश्वामित्र के आते ही राज्य दे देना प्रयत्न है। दक्षिणा चुकाने को काशी में सस्त्रीक बिकना प्राप्त्याशा है। चौथे अंक में स्वामि-कार्य करते हुए सत्य पथ से न डिगना नियताप्ति है और भगवान का आकर उन्हें परीक्षोत्तीर्ण होना कहना फलागम है। पूर्वोक्त विचारों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्यहरिश्चन्द्र नाटक के प्रायः सभी लक्षणों से युक्त हैं।
ख---पात्रों का विवेचन
नाटक के पात्रों का चरित्र-चित्रण भी बहुत अच्छा किया