पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४९९

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मुद्राराक्षस

( एक परदा हटना है और राक्षस आसन पर बैठा हुआ चिंता की मुद्रा में एक पुरुष के साथ दिखाई पडता है )

राक्षस---( आप ही आप ) चंद्रगुप्त की ओर के बहुत लोग हमारी सेना में भरती हो रहे हैं इससे हमारा मन शुद्ध नहीं है। क्योंकि---

रहत साध्य नै अचित अरु विलसत निज पच्छहिं।
सोई साधन साधक जो नहिं छुअत बिपच्छहिं॥
जो पुनि आपु असिद्ध सपच्छ बिपच्छडु में सम्।
कछु कहुँ नाहे निज पच्छ मॉहि जाको है संगम॥
नरपति ऐसे साधनन कों अनुचित अंगीकार करि।
सब भांति पराजित होन हैं बादी लौं बहु बिधि बिगरि॥

वा जो लोग चंद्रगुप्त से उदास हो गए हैं वही लोग इधर मिले हैं, मैं व्यर्थ सोच करता हूँ। ( प्रगट ) प्रियंबदक! कुमार के अनुयायी राजा लोगों से हमारी ओर से कह दो कि अब कुसुमपुर दिन-दिन पास आता जाता है, इससे सब लोग अपनी सेना अलग-अलग करके जो जहाँ नियुक्त हो वहाँ सावधानी से रहें।

आगे खस अफ मगध चले जयध्वजहि उड़ाए।
यवन और गंधार रहें मधि सैन जमाए॥
चेदि - हून - सकराज लोग पीछे सो धावहिं।
कौलूतादिक नृपति कुमारहि घेरे आवहिं॥