प्रियं०--अमात्य की जो आज्ञा।
[ जाता है
( प्रतिहारी आती है )
प्रति०---अमात्य की जय हो। कुमार अमात्य को देखना चाहते हैं।
राक्षस---भद्र! क्षण भर ठहरो। बाहर कौन है?
( एक मनुष्य आता है )
मनुष्य---अमात्य! क्या आज्ञा है?
राक्षस---भद्र! शकटदास से कहो कि जब से कुमार ने हमको आभरण पहराया है तब से उनके सामने नंगे अंग जाना हमको उचित नहीं है। इससे जो तीन आभरण मोल लिए हैं उनमें से एक भेज दें।
मनुष्य---जो अमात्य की आज्ञा। ( बाहर जाता है और आभरण लेकर आता है ) अमात्य! अलंकार लीजिए।
राक्षस---( अलंकार धारण करके ) भद्रे! राजकुल में जाने का मार्ग बतलाया।
प्रति०---इधर से आइए।
राक्षस---अधिकार ऐसी बुरी वस्तु है कि निर्दोष मनुष्य का भी जी डरा करता है।
सेवक प्रभु सों डरत सदाहीं। पराधीन सपने सुख नाहीं॥
जे ऊँचे पद के अधिकारी। तिनको मनहीं मन भय भारी॥
सबही द्वेष बड़न सों करहीं। अनुछिन कान स्वामि को भरहीं॥