पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५०१

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मुद्राराक्षस

जिमि जे जनमे ते मरे, मिले अवसि बिलगाहिं।
तिमि जे अति ऊँचे चढ़ें, गिरिहैं संसय नाहि॥

प्रति०---( आगे बढ़ कर ) अमात्य! कुमार यह बिराजते हैं, आप जाइए।

राक्षस---अरे, कुमार यह बैठे हैं।

लखत चरन की अोर हू, तऊ न देखत ताहि।
अचल दृष्टि इक ओर ही, रही बुद्धि अवगाहि॥
कर पै धारि कपोल निज लसत झुको अवनीस।
दुसह काज के भार सों मनहुँ नमित भो सीस॥

( आगे बढ़कर ) कुमार की जय हो!

मलय०---आर्य! प्रणाम करता हूँ। श्रासन पर बिराजिए।

( राक्षस बैठता है )

मलय०---आर्य! बहुत दिनों से हम लोगो ने आपको नहीं देखा।

राक्षस कुमार! सेना को आगे बढ़ाने के प्रबंध में फँसने के कारण हमको यह उपालंभ सुनना पड़ा।

मलय०---अमात्य! सेना के प्रयाण का आपने क्या प्रबंध किया है? मैं भी सुनना चाहता हूँ।

राक्षस---कुमार! आपके अनुयायी राजा लोगों को यह आज्ञा दी है। ('आगे खस अरु मगध' इत्यादि छंद पढ़ता है )

मलय०---( आप ही आप ) हाँ, जाना; जो हमारा नाश करने