पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२३
मुद्राराक्षस

राक्षस---मित्र, तुम्हारे सञ्चरित्र का एक छोटा सा अनुकरण।

चंदन०---अमात्य, मेरा किया तो सब निष्फल हो गया, पर आपने ऐसे समय यह साहस अनुचित किया।

राक्षस---मित्र चंदनदास! उलाहना मत दो, सभी स्वार्थी हैं। ( चांडाल से ) अजी! तुम उस दुष्ट चाणक्य से कहो।

दोनों चांडाल---क्या कहें?

राक्षस----

जिन कलि मैं हू मित्र-हित तृन-सम छोड़े प्रान।
जाके जस-रबि सामुहे सिवि-जस दीप समान॥
जाको अति निर्मल चरित, दया आदि नित जानि।
बौद्धहु सब लजित भए, परम शुद्ध जेहि मानि॥
ता पूजा के पात्र को मारत तू धरि पाप।
जाके हित सो शत्रु तुव आयो इत मैं आप॥

१ चांडाल----अरे वेणुवेत्रक! तू चंदनदास को पकड़कर इस मसान के पेड़ की छाया में बैठ, तब से मंत्री चाणक्य को मैं समाचार दूँ कि अमात्य राक्षस पकड़ा गया।

२ चांडाल---अच्छा रे वज्रलोमक! ( चंदनदास, स्त्री, बालक और सूली को लेकर जाता है )

१ चांडाल---( राक्षस को लेकर घूमकर ) अरे! यहाँ पर कौन है? नंदकुल-सेनासंचय के चूर्ण करनेवाले वज्र से, वैसे