पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५३०

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मुद्राराक्षस

दुख सों सोचत सदा जागत रैन बिहाय।
मेरी मति अरु चंद्र की सैनहि दई थकाय॥

( परदे से बाहर निकलकर ) अजी अजी अमात्य राक्षस! मैं विष्णुगुप्त आपको दंडवत् करता हूँ। ( पैर छूता है )

राक्षस---( आप ही आप ) अब मुझे अमात्य कहना तो केवल मुँह चिढाना है। ( प्रगट ) अजी विष्णुगुप्त! मैं चांडालों से छू गया हूँ इससे मुझे मत छूओ।

चाणक्य---अमात्य राक्षस! वह श्वपाक नहीं है, वह आपका जाना-सुना सिद्धार्थक नामा राजपुरुष है और दूसरा भी समिद्धार्थक नामा राजपुरुष हो है; और इन्हीं दोनों द्वारा विश्वास उत्पन्न करके उस दिन शकटदास को धोखा देकर मैंने वह पत्र लिखवाया था।

राक्षस---( आप ही आप ) अहा! बहुत अच्छा हुआ कि मेरा शकटदास पर से संदेह दूर हो गया।

चाणक्य---बहुत कहाँ तक कहूँ--

वे सब भद्रटादि, यह सिद्धार्थक, वह लेख।
यह भदंत, वह भूषनहु, वह नट भारत भेख॥
वह दुख चन्दनदास को, जो कछु दियो दिखाय।
से सब मम ( लज्जा से कुछ सकुचकर )
सो सब राजा चंद्र को तुम सो मिलन उपाय॥
देखिए, यह राजा भी आपसे मिलने आप ही आते हैं।