पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५६

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में भी दोष दिखलाया गया है। अभिनय के विचार से आपका कहना है कि 'अंकों को क्रमशः छोटा होता जाना चाहिए पर इसमें ऐसा नहीं है। यदि यह मान लिया जाय कि इस नाटक का अभिनय तीन घंटे में किया जा सकता है तो इसके चारों अंकों का अभिनय करने में क्रमशः २५,३०,४० और ८५ मिनट लगेंगे।' उक्त अालोचना का सारांश यह हुआ कि नाटक नाटककार की शास्त्र तथा व्यवहार आदि की अनभिज्ञता प्रकट करता हुआ आप भी अपने को दोषपूर्ण घोषित कर रहा है।

नाटक के उपक्रम में भारतेन्दुजी ने लिखा है कि यह बालकों के पढ़ने के लिये लिखा गया है। पात्रों के वस्त्रादि के वर्णन देने से यह ध्वनि निकलती है कि इसे वे अभिनय के उपयुक्त भी समझते थे। भारतेन्दुजी ने चारों अंक तथा अंकावतार के अंत में जवनिका गिरती है, यही लिखा है और कहीं भी परदा उठता है ऐसा नहीं लिखा है। स्यात् उन्होंने भारतीय ढंग के अनुसार ही प्रत्येक दृश्य के अंत में यवनिका-पतन ही उचित समझा है। तात्पर्य यह कि परदो का गिरना अभिनय में रुकावट न डालते हुए कोई नियमभंग नहीं करता। मिनट वाला किस्सा भी उलटा है। भारतेन्दुजी अंको को बराबर बढ़ाते गए हैं पर साथ ही दर्शकों का 'आलस्य और थकावट' मिटाते हुए उत्सुकता तथा कारुण्य भी बढ़ाते गए हैं। नाटक की घटनावली देखते हुय अंको का समय बहुत ठीक है।

सत्यहरिश्चन्द्र में 'चंडकौशिक' से कहाँ तक सहायता ली गई है, इसमें भी दोनों समालोचकों में मतभेद है। प्रथम का कथन है कि 'इस प्रकार सत्यहरिश्चन्द्र और चण्डकौशिक के