पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५७

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मूल आधार में ही बड़ा अन्तर है, अतएव एक को दूसरे का अनुवाद कहना अनुचित है'। दूसरे समालोचक इसके विपरीत चण्डकौशिक को सत्यहरिश्चन्द्र का अाधार मानते हैं। प्रथम ने चण्डकौशिक बिना देखे ही स्यात् अपनी सम्मति दे दी है, ऐसा ज्ञात होता है, पर दूसरे ने दोनों ग्रंथों को मिलान करके दिया है। इस पर अन्यत्र विचार हो चुका है।

नाटक में पहिले पूर्वरंग, तब सभा पूजा और उसके बाद कवि नाम आदि कथन रूपी आमुख होता है। नाट्य वस्तु के पहिले रंगशाला के विघ्नों के शांत्यर्थ नटों द्वारा जो कुछ किया जाता है उसे ही पूर्वरंग कहते हैं। यही कारण है कि पूर्वरंग का सब कार्य नटों द्वारा उनकी इच्छानुसार होता है, इसलिये महर्षियों ने उस पर विशेष नहीं लिखा है। पूर्वरंग के अनेक अंगों में नान्दी भी एक है जो 'अवश्यं कर्तव्या नान्दी विघ्नोपशांतये'। इसमें जो मंगलाचरण होता है, वही नान्दी कहलाता है। यह कार्य सभी नाटको में समान-रूपेण होता है, इसीलिए नाटककार अपनी रचना पूर्वरंग के आयोजन के बाद उसे 'नान्द्यन्ते सूत्रधार:' से आरम्भ करता है। प्रायः नाटककार-गण अपनी रचना के निर्विघ्न समाप्त होने के लिए मंगलाचरण बनाते हैं और शास्त्रानुसार नान्दी के हो जाने पर भी उसके बाद 'नान्दी के अनन्तर सूत्रधार आता है' लिख देते हैं।

भारतेदुजी नान्दी को नान्दी-पाठक नहीं समझते थे वरन् मंगलपाठ ही समझते थे पर कहीं-कहीं उसे विशेषण रूप में प्रयुक्त किया है।

इस नाटक की प्रस्तावना कथोद्घात है।