जहाँ पात्र सूत्रधार के वाक्य या वाक्यार्थ को लेकर प्रवेश करे वह कथोद्घात है। इसमें श्लेष की आवश्यकता नहीं है। जिस अर्थ में सूत्रधार कहता है वैसा ही भाव लेकर पात्र प्रवेश करता है। वेणीसंहार में सूत्रधार के यह कहने पर कि 'वैर के शान्त हो जाने से पाण्डवगण श्रीकृष्ण के साथ आनन्द करें और पाण्डवों को उनको स्वत्वानुसार सब भूमि देकर शत्रुता का अन्त कर कौरव लोग भी भृत्यों के साथ प्रसन्न हों' भीमसेन ने उसका अर्थ ग्रहण कर यह कहते प्रवेश किया कि 'अरे दुष्ट, मंगल पाठक, नटाधम आदि' पर इसके बाद ही पाण्डव-कौरवों के आनन्द करने की बात 'काफूर' हो जाती है। सूत्रधार का यह कथन भी कि 'आनन्द करे' लालाजी के अनुसार अनुचित ही होगा क्योकि सूत्रधार के समय कौरव पाण्डव एक भी न थे। अस्तु, इसी प्रकार सत्यहरिश्चन्द्र में सूत्रधार सहज भाव से अपने समय के हरिश्चन्द्र की पहिले हुए राजा हरिश्चन्द्र से तुलना करता है पर उसी वाक्यार्थ को लेकर इन्द्र-पात्र प्रवेश करता है। 'कॉपता' बहुत ठीक है, क्योंकि इन्द्र-पात्र अपने अर्थात् सूर्यवंशीय हरिश्चंद्र के समय के सुरलोक के कॉपने का उल्लेख करता है, सूत्रधार के समय का नहीं। 'दूजे हरिश्चन्द्र' का भाव केवल सूत्रधार द्वारा पहिले हरिश्चन्द्र का उल्लेख कराने मात्र को था और यही कारण है कि नारद जी के आते ही वह 'काफूर' हो गया। पर पहिले हरिश्चन्द्र के प्रति इन्द्र को जो ईर्ष्या हो रही थी उसको इस भाव से जो उत्तेजना मिली थी वह अवश्य बनी रही।
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