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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५९

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अंकावतार अंक का अवतार नहीं होता प्रत्युत् अगले अंक के अवतीर्ण होने की सूचना मात्र देता है। अंकावतार के लक्षण से यह स्पष्ट है कि उसका पिछले अंक का अंगीभूत होना या न होना दोनों ही नाट्यशास्त्र द्वारा अनुमोदित हैं।

राजा हरिश्चंद्र के मुख से गंगाजी का वर्णन कराया गया है इससे एक महाशय इसे देश-काल-दोष विभूषित कहते हैं और दूसरे इसे भद्दी गलती कहते हुए लिखते है कि चंडकौशिक और रत्नाकरजी कृत हरिश्चन्द्र में गंगा-वर्णन नहीं है। चंडकौशिक पृ० १२६ पर राजा हरिश्चन्द्र कहते है---भवतुभागीरथी-तटो-पान्तेषु सुत-शोक्राग्नि-दह्यमानमात्मानं निर्यापयामि। देखिए केवल गंगा ही नहीं 'भागीरथी' शब्द तक मौजूद है। रत्नाकरजी के 'हरिश्चन्द्र' में सरयू का वर्णन रहते यह कहना कि गंगा का वर्णन नहीं आया अनर्गल है। गोस्वामीजी लिखते हैं---

मुनि अनुसासन गनपतिहिं, पूजेउ संभु-भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि, सुर अनादि जिय जानि॥

गंगाजी को भी 'सुर अनादि' माने तो शंका निर्मूल हो जाती है और गणेशजी की माता की अग्रजा को देवी मानना ही पड़ेगा। भगीरथ-नंदनी, जाह्नवी, ब्रह्मस्वरूपिणी आदि पौराणिक आख्यान लेने से वे देवी बनकर अनादि हो जायँगी। गंगाजी को नदी ही माना जाय तो यह कहना कि राजा भगीरथ के पहिले गंगाजी भारत में नहीं थी बिलकुल तथ्यहीन होगा। विचारिए कि हिमालय से लेकर विंध्य तक तथा पंजाब से लेकर ब्रह्मा तक के बीच की जितनी नदियाँ हैं सभी गंगा की