पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६१

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सत्य तथा दानवीरता की चरम सीमा प्रगट करता है। मनोविज्ञान-वेत्ताओं को यह भी जानना चाहिए कि यह आख्यान असाधारण पुरुषो का है। साधारण मानव प्रकृति यदि किसी प्रकार दब कर अपना सर्वस्व क्या उसका कुछ अंश भी दान करने पर वाध्य हो तौ भी वह बाद को उस दान को न मानने ही की कोशिश करेगी। महारानी शैव्या के अपने स्वप्न के वृत्तांत कहने पर राजा हरिश्चन्द्र को अपने स्वप्न का याद अाना क्यों दूषित बतलाया जाता है, यह नहीं कहा जा सकता। नाटक उपाख्यान आदि में एक बात का दूसरे से संबंध रहना ही चाहिए। कुस्वप्न देखने के कारण शैव्या के मलीन मुख को देखकर उसका हाल पूछने के पहिले अपना ही रोना रोना क्या उचित होता? महारानी के स्वप्न तथा शांति का वृत्त सुनकर राजा हरिश्चन्द्र ने अपने स्वप्न का हाल कहा है।

विश्वामित्र के आने पर चंडकौशिक के दो श्लोक उद्धृत किए गए हैं, जिनके कुछ अंशों पर आपत्ति की जाती है पर किसी दूसरे की कविता में कुछ रद्दो बदल करना अनुचित होता इसलिये ये ज्यों के त्यों रख दिए गए ज्ञात होते हैं। इन्हें न रखकर उसके स्थान पर हिन्दी ही में परिचयादि दिए जाते तो उत्तम होता। पृथ्वीदान ग्रहण करके विश्वामित्र के दक्षिणा माँगने पर राजा हरिश्चन्द्र का यह कहना---'मंत्री दस हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ' भी मनोविज्ञानवेत्ताओं को खटकता है और वे उसे भोंड़ी बात समझते हैं। सत्य ही क्या जब मनुष्य लोग अपने मकान बेंचते हैं, किराए पर देते या दान देते हैं तो उस मकान की सब वस्तु को तुरंत क्रेता, किराएदार या दानपात्रकी समझ