से कहला दिया गया है। जब तक हरिश्चन्द्र रंगमंच पर आकर काशी तथा गंगा का वर्णन और विश्वामित्र से बात चीत कर रहे थे उस समय तक शैव्या तथा रोहिताश्व का वहाँ खड़ा रहना बेकार था। सभी समझ सकते हैं कि वे दोनों राजा हरिश्चन्द्र के पीछे होगे और समय पर आ जायँगे। जब हरिश्चन्द्र ने अपने को बेंचने के लिए आवाज लगाया तब उसे सुनकर शैव्या का झट आकर अपने को पहिले बेंचने के लिए कहना बिलकुल स्वाभाविक है। क्या जितने पात्र अंक के बीच में रंगमंच पर आते हैं, वे पहिले कहाँ थे यह सूचित करना किसी नाट्यशास्त्र का नियम है? यात्रा करते-करते शैव्या का थक जाना तथा राजा हरिश्चन्द्र को दृश्य देखते हुए उसके वर्णन करने में लीन देखकर नेपथ्य ही में ठहर जाना और ठीक समय पर उनकी आवाज सुनकर आ जाना क्या सहज स्वाभाविक नहीं है।
कुछ ऐसी ही बात दूसरे अंक के लिए भी कहो गई है। शैव्या के रंगमंच पर रहते हुए भी आपको उसका पता नहीं। यदि थी तो उसने प्रणाम क्यों नहीं किया? क्यो करे? कहाँ पति-पुत्र का अशुभ-सूचन, उस पर पति के सर्वस्व दान करने की चिंता और कहाँ अज्ञात नाम गोत्र ब्राह्मण का आगमन, जिसके विषय में यह आशंका है कि कहीं उनके दुःख का वही मूल कारण तो नहीं हैं। राजा हरिश्चन्द्र तो स्वागत और प्रणाम करके लाने गये और कहाँ उस दुर्वासा के अवतार ने इतना क्रोध दिखलाया कि राजा साहब ही घबड़ा गए तब बतलाइये कि रानी साहबा भी कुछ सुनने जातीं। यहाँ तक शंकाओ के कुछ समाधान करने की चेष्टा की गई है।