पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६४

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६—प्रेम योगिनी

यह एक अपूर्ण नाटिका है और भारतेन्दुजी की अच्छी मौलिक रचनाओं में इसकी गणना की जाती है। पहिले इसके दो दृश्य लिखे गए थे, जिन में प्रथम में 'काशी के बदमाशों और बुरे चाल चलन के लोगों का वर्णन और दूसरे में काशी की प्रशंसा, यहाँ के मिलने के योग्य महात्माओं के नाम, देखने योग्य स्थानों का वर्णन इत्यादि' है। ये दोनों दृश्य हरिश्चन्द्र चन्द्रिका (खंड १ सं° ११ और खंड २ सं° ३, ७, सन् १८४५) में प्रकाशित हुए थे। यही 'काशी के छाया चित्र अर्थात् काशी के दो बुरे भले फोटोग्राफ' नाम से चंद्रिका से उद्धृत होकर हरिप्रकाश प्रेस से प्रकाशित हुए थे। इसके अनंतर इसके केवल दो दृश्य और लिखे गए और यह नाटिका अपूर्ण रह गई। नहीं कहा जा सकता कि भारतेन्दुजी ने इस नाटिका को स्वतः, किसी दबाव या समयाभाव के कारण पूर्ण नहीं किया। काशी के इस प्रकार के अनेक दृश्य चित्रित करने को बच गए थे और भारतेन्दु जी इसमें कुछ अपना भी वर्णन दे रहे थे, इसलिए यदि यह नाटिका पूर्ण हो जाती तो अवश्य ही विशेष महत्व की होती।

इस नाटिका की प्रस्तावना में भारतेन्दु जी ने अपने विषय में इस प्रकार सूत्रधार से कहलाया है कि दुष्ट छिद्रान्वेषियों के कारण 'प्रेम की एक मात्र मूर्ति, सत्य का एक मात्र आश्रय, सौजन्य का एक मात्र पात्र, भारत का एक मात्र हित, हिन्दी का एक मात्र जनक, भाषा नाटकों का एक मात्र जीवनदाता हरिश्चन्द्र ही दुखी हो' और 'तेरा तो बाना है कि कितना भी