पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६५

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दुख हो उसे सुख ही मानना। लोभ के परित्याग के समय नाम और कीर्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत गति चल के तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है।' 'कहेंगे सबैही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी।' इन सबसे आत्म-क्षोभ पूर्ण रूपेण झलक रहा है। यह प्रस्तावना सं० १९३१ वि० में चन्द्रिका में प्रकाशित हुई थी और भारतेन्दु जी की जीवनी से ज्ञात होता है कि यह वह समय था जब इनकी अवस्था २५ वर्ष की थी। सं० १९२७ में भाई से इनका बँटवारा हो गया था और इसके पाँच वर्ष बाद इनकी मातामही ने एक वसीयतनामा लिखकर इनका हिस्सा इनके छोटे भाई को इस कारण दे दिया था कि इन्होंने 'जायदाद मौरूसी बर्बाद कर दर्जा आखीरी को पहुँचा दिया'। अर्थ---संकोच के साथ इस तरह की बातें सुनने से इनमें आत्म-क्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। नाटिका में इसके कारण का कुछ अाभास मिलता है।

प्रस्तावना के बाद प्रथम गर्भांक में गोपाल मंदिर का दृश्य है और आरम्भ ही में 'बाबू किहाँ बैठ के ही-ही-ठी-ठी करा चाहैं' कहकर अपना साधारण परिचय दे दिया है। झपटिया तथा मिश्र जी की बातचीत से मंदिर के खुलने में कुछ देर ज्ञात होती है, तब से दर्शन करने वाले आते है और आपस में बातचीत होती है। बा० रामचंद्र के विषय ही में चर्चा छिड़ती है और 'हा हा-ठी-ठी' 'दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन' से आरम्भ होता है। 'कवित्त तो उनके बापौ बनावत रहे' में बा० गोपालचन्द्र का उल्लेख है और तत्कालीन क्या इस काल में


भा० ना० भू०---५