पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६५२

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तीसरा अंक

स्थान-जंगल

(महंतजी और नारायणदास एक ओर से "राम
भनो" इत्यादि गाते हुए आते हैं और दूसरी
ओर से गोबरधनदास 'अधेरनगरी'
गाते हुए पाते हैं)

महंत––बच्चा गोबरधनदास! कह, क्या भिक्षा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।

गोबरधन०-बाबाजी महाराज! बड़े माल लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।

महंत––देखू बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रखकर खोलकर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?

गोबरधन०––गुरुजी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।

महंत––बच्चा! नारायणदास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, यह कौन सी नगरी है और इसका कौन सा राजा है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा है?