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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६५३

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भारतेंदु-नाटकवली

गोबरधन०––अंधेरनगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।

महंत––तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हों।

दोहा

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास॥
कोकिल बायस एकसम, पंडित मूरख एक।
इंद्रायन दाडिम विषय जहाँ न नेकु बिबेक॥
बसिए ऐसे देस नहि, कनक-वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय॥

से बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अंधेरनगरी में हजार मन मिठाई मुरू को मिले तो किस काम की? यहाँ एक छन नहीं रहना।

गोबरधन०––गुरुजी, ऐसा तो संसार भर में कोई देस ही नहीं है। दो पैसा पास रहने ही से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मॉगो तो भी पेट नहीं भरता। वरंच बाजे-बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यहीं रहूँगा।

महंत––देख बच्चा, पीछे पछतायगा।