पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६५४

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अंधेर-नगरी

गोबरधन०––आपकी कृपा से कोई दुख न होगा; मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

महंत––मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भर नहीं रहूँगा। देख, मेरी बात मान, नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूँ, पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो हमारा स्मरण करना।

गोबरधन०––प्रणाम गुरुजी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

(महंतनी नारायणदास के साथ जाते हैं, गोबरधनदास बैठकर मिठाई। खाता है)

(जवनिका गिरती है)

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