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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६६३

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भारतेंदु-नाटकवली

न्याव के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी को पकड़ें तो वह न-जानें क्या बात बनावे कि हमीं लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधू महात्मा इन्हीं लोगो की तो दुर्दशा है, इससे तुम्ही को फांसी देंगे।

गोबरधन०––दुहाई परमेश्वर की, अरे मैं नाहक मारा जाता हूँ! अरे यहाँ बड़ा ही अंधेर है, अरे गुरुजी महाराज का कहा मैंने न माना उसका फल मुझको भोगना पड़ा। गुरुजी कहाँ हो! आओ, मेरे प्राण बचाओ, अरे मैं बेअपराध मारा जाता हूँ। गुरुजी गुरुजी––

(गोबरधनदास चिल्लाता है, प्यादे उसको पकडकर ले जाते हैं)

(जवनिका गिरती हैं)