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सतीप्रताप

(गौरी)

पवन लगि डोलत बन की पतियाँ।

मानहुँ पथिकन निकट बुलावहिं कहन प्रेम की बतियाँ॥
अलक हिलत फहरत तन सारी होत हैं सीतल छतियाँ।

यह छबि लखि ऐसी जिय आवत इतहि बितैये रतियाँ॥

सुरबाला--सखी, कैसा सुंदर वन है।

लवंगी--और यह बारी भी कैसी मनोहर है।

मधुकरी--आहा ! तपोवन ऋषि-मुनि लोगो को कैसा सुखदायक होता है।

सावित्री--सखी, ऋषि-मुनि क्या, तपोवन सभी को सुख देता है।

सुर०--क्योकि यहाँ सदा वसंत ऋतु रहती है न।

सावित्री--वसंत ही से नहीं तपोवन ऐसा हई है।

मधु०--अहा ! यह कुंज कैसा सुंदर है। सखी, देखो माधवी लता इस कंज पर कैसी घनघोर छाई हुई है।

सावित्री--सहज वस्तुएँ सभी मनोहर होती हैं। देखो, इस पर फूल कैसे सुंदर फूले हैं जैसे किसी ने देवता की फूल-मंडली बनाई हो।

सुर०--और उधर से हवा कैसी ठंढी आती है।

लवंगी--और हवा में सुगंध कैसी है।

मधु०--सखी! एक-टक उधर ही क्यों देख रही हो!भा० ना०--३७