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भारतेंदु-नाटकावली
सुर०--सच तो सखी। वहाँ क्या है जो उधर ही ऐसी दृष्टि गड़ा रही हो?
लवंगी--तू क्या जाने। तपोवन में सैकड़ों वस्तुएँ ऐसी होती हैं।
(राग सोरठ)
सावित्री--
लखो सखि भूतल चंद खस्यो।
राहु-केतु-भय छोड़ि रोहिनिहि या बन आइ बस्यो॥
कैसिव-जय-हित करत तपस्या मनसिज इत निबस्यो।
मधु०--सच तो, तपसियों में ऐसा रूप !
सुर०--जाने दे। वनवासी तपस्वी में ऐसा रूप कहाँ?
सावित्री--यह मत कहो। बिधना की कारीगरी जैसी नगर में वैसी ही वन में।
(सत्यवान की ओर सतृष्ण दृष्टिपात)
सुर०--देखती हो? एक-मन एक-प्रान होकर कैसा सोच रही है?
लवंगी--(परिहास से) आज जो यह तापस-कुमार के बदले राजकुमार होते तो घर बैठे गंगा बही थी।
मधु०--सखी, इसका कुछ नेम नहीं है कि राजकुमारी का ब्याह राजकुमार ही से हो।
सावित्री--विधाता ने जिस भाव में राजपुत्र को सिरजा है उसी