सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७८
भारतेंदु-नाटकावली

सुर०--सच तो सखी। वहाँ क्या है जो उधर ही ऐसी दृष्टि गड़ा रही हो?

लवंगी--तू क्या जाने। तपोवन में सैकड़ों वस्तुएँ ऐसी होती हैं।

(राग सोरठ)

सावित्री--


लखो सखि भूतल चंद खस्यो।
राहु-केतु-भय छोड़ि रोहिनिहि या बन आइ बस्यो॥
कैसिव-जय-हित करत तपस्या मनसिज इत निबस्यो।

कै कोऊ बनदेव कुंज में बनबिहार बिलस्यो॥

मधु०--सच तो, तपसियों में ऐसा रूप !

सुर०--जाने दे। वनवासी तपस्वी में ऐसा रूप कहाँ?

सावित्री--यह मत कहो। बिधना की कारीगरी जैसी नगर में वैसी ही वन में।

(सत्यवान की ओर सतृष्ण दृष्टिपात)

सुर०--देखती हो? एक-मन एक-प्रान होकर कैसा सोच रही है?

लवंगी--(परिहास से) आज जो यह तापस-कुमार के बदले राजकुमार होते तो घर बैठे गंगा बही थी।

मधु०--सखी, इसका कुछ नेम नहीं है कि राजकुमारी का ब्याह राजकुमार ही से हो।

सावित्री--विधाता ने जिस भाव में राजपुत्र को सिरजा है उसी