पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६७४

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सतीप्रताप

भाव में मुनि-पुत्र को। और फिर राजघन से तपेाघन कुछ कम नहीं होता।

सत्य०--(आप ही आप) यह क्या घनदेवी आई हैं !

मधु०--हम उनके पास जाकर प्रणाम तो कर आवें।

(मधुकरी का कुञ्ज की ओर बढ़ना और सत्यवान का लतामंडप से निकलकर बाहर बैठना)

मधु०--(सत्यवान के पास जाकर) प्रणाम (हाथ जोड़ कर सिर झुकाना)

सत्य०--आयुष्मती भव। आप लोग कौन हैं ?

मधु०--हम लोग अपनी सखी मद्र देश के जयंतीनगर के राजा अश्वपति की कुमारी सावित्री के साथ फूल बीनने आई हैं।

सत्य०--(स्वगत) राजकुमारी ! वामन को चंद्रस्पर्श।

मधु०--कृपानिधान ! आप सदा यहीं निवास करते हैं ?

सत्य०--जब तक दैव अनुकूल न हो, यहीं निवास है।

मधु०-इससे तो बोध होता है कि किसी राजभवन को सूना करके आप यहाँ आए हैं।

सत्य०--सखी ! उन बातों को जाने दो।

मधु०--हमारे अनुरोध से कहना ही होगा। दयालु सजनगण अतिथि की यांचा व्यर्थ नहीं करते, विशेष करके पहले ही पहल।