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भारतेंदु-नाटकावली

सत्य०--हम शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र हैं। हमारा नाम चित्राश्व वा सत्यवान् है। इस मेध्यारण्य नामक वन में पिता की सेवा करते हैं।

मधु०--(आप ही आप) तभी ! गंगा समुद्र छोड़कर और जलाशय की ओर नहीं झुकती। (प्रगट) तो आज्ञा हो तो अब प्रणाम करूँ।

सत्य०--(कुछ उदास होकर) यह क्यो ? बिना आतिथ्य स्वीकार किए हुए?

मधु०--इसका तो मैं सखी से पूछ लूँ तो उत्तर दूँ। (सावित्री के पास आकर) सखी ! कुमार तापस कहते हैं कि आतिथ्य स्वीकार करना होगा।

(सावित्री सखियों का मुख देखती है)

लवंगी--(परिहास से) अवश्य अवश्य। इसमें क्या हानि है।

सावित्री--(कुछ लज्जा करके) सखी, उनसे निवेदन कर दे कि हम लोग माता-पिता की आज्ञा लेकर तब किसी दिन आतिथ्य स्वीकार करेंगे, आज विलंब भी हुआ है।

मधु०--(सत्यवान के पास जाकर) कुमारी कहती हैं कि किसी दिन माता-पिता की आज्ञा लेकर हम आवेगे तब आतिथ्य, स्वीकार करेंगे। आप तो जानते ही हैं कि आर्यकुल की ललनागण किसी अवस्था में भी स्वतंत्र नहीं हैं। इससे आज क्षमा कीजिए।