जसुदा-सुअन देवकीनंदन। जगबंदन प्रभु कंसनिकंदन॥
शंख-चक्र-कौमोदकि - धारी। वंशीधर बकबदन-बिदारी॥
जय बृदाबन - चंदा। जय केशव करुणा-कंदा॥
(सब लोग प्रणाम करके बैठाते हैं)
द्युमत्सेन--हमारे धन्य भाग कि इस दीनावस्था में आपके दर्शन हुए।
नारद--राजन्! तुम्हारे पास सत्यधन, तपोधन, धैर्यधन अनेक धन हैं, तुम क्यों दीन हौ? और आज हम तुमको एक अति शुभ संदेश देने को आए है। तुम्हारे पुत्र का विवाह-संबंध हम अभी स्थिर किए आते हैं। सावित्री के पिता को भी समझा आए हैं कि उनकी कन्या सावित्री अपने उज्ज्वल पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से सब आपत्तियों को उल्लंघन करके सुखपूर्वक कालयापन करेगी और अपने पवित्र चरित्र से दोनो कुल का मान बढ़ावेगी। तुमसे भी यही कहने आए हैं कि सब संदेह छोड़कर विवाह का
संबंध पक्का करो।
द्युमत्सेन--मुझको आपकी आज्ञा कभी उल्लंघनीय नहीं है। किंतु--
नारद--किंतु फिंतु कुछ नहीं। विशेष हम इस समय नहीं