चले गए? नाथ! आँखें बहुत प्यासी हो रही हैं, इनको रूप-सुधा कब पिलाओगे?"
विरह-दशा में यदि सहायक मिल जाय तो अवश्य ही विरह-कष्ट कुछ कम हो जाता है, आशा बड़ी बलवती होती है, पर इस दशा में निरवलम्बता ही अधिक मालूम होती है और इसी से यह कष्टकर होती है। विरहिणी कहती है---"अरे मेरे नित के साथियो, कुछ तो सहाय करो।"
अरे पौन सुख-भौन सबै थल गौन तुम्हारो।
क्यौं न कहौ राधिका-रौन सों मौन निवारो॥
अरे भँवर तुम श्याम रंग मोहन-व्रत-धारी।
क्यों न कहौ वा निठुर श्याम सों दसा हमारी॥
अरे हंस तुम राजवंश सरवर की शोभा।
क्यो न कहो मेरे मानस सों या दुख के गोभा॥
विरह में सुखद वस्तु भी दुःखद प्रतीत होती है। श्यामघन को देख घनश्याम की, इन्द्रधनुष तथा बगमाल देखकर श्रीकृष्ण के बनमाला और मोतीमाला की, मोर पिक आदि के शब्द सुनकर वंशीनाद करने वाले की छबि की और---
देखि देखि दामिनि की दुगुन दमक,
पीतपट छोर मेरे हिय फहरि-फहरि उठै।
यह दुःख अनुपम है। और सब दुःख दवा करने, सांत्वना देने, धैर्य धरने से कुछ कम ज्ञात होते है पर यह इन सबसे और बढ़ता है। एक ऐसी ही विरहिणी का वर्णन कितना स्वाभाविक