पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/८१

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हुआ है कि सुनने वाले का मन बरबस उससे सहानुभूति-पूर्ण होकर उमड़ पड़ता है---

छरी सी छकी सी जड़ भई सी जकी सी घर,
हारी सी बिकी सी सो तो सबही घरी रहै।
बोले ते न बोले दूग खोलै ना हिंडोलै बैठि,
एक टक देखै सो खिलोना-सी धरी रहै॥
'हरीचंद' औरौ घबरात समुझाएँ हाय,
हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै।
याद आए सखिन रोवावै दुख कहि-कहि,
तौ लौं सुख पावै जौ लौं मुरछि परी रहै॥

वह तभी तक कुछ अाराम पाती है जब तक अपने होश में नहीं रहती। यही जड़ता नवीं काम दशा है। विरही-विरहिणी प्रायः अपना दुःख दूसरे स्त्री पुरुष से नहीं कहते और कहते भी हैं तो जड़ पदार्थों से कहकर अपने जी का बोझ हलका करते हैं। वे ऐसा क्यों करते है, यह कवि ने एक पद में इस प्रकार कहलाया है---

मन की कासों परि सुनाऊँ।
बकनो वृथा और पत खोनी सबै चबाई गाऊँ॥
कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै धरिहै उलटो नाऊँ,
यह तो जो जानै सोइ जानै क्यो करि प्रकट जनाऊँ॥
रोम-रोम प्रति नैन श्रवण मन केहि धुनि रूप लखाऊँ।
बिना सुजान-शिरोमनि री केहि हियरोकादि दिखाऊँ।
मरमिन सखिन वियोग दुखिन क्यों कहि निज दसा राआऊँ।
हरीचंद पिय मिले तो पग परि गहि पटुका समझाऊँ॥