सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८४ )

मनुष्यों के पहचानने की शक्ति भी अपूर्व थी पर इसके विपरीत राक्षस ने अंत तक अपने विश्वस्त मनुष्यों से ही धोखा खाया। शत्रु के यहाँ से भाग आने को इन्होने उत्तम प्रमाण तथा प्रशंसा-पत्र मान लिया था। एक बार इन्हें इस विषय पर शंका हुई थी ( देखिए अं० ५ पृ० ३९३ ) पर वह भी अन्तिम समय में। राक्षस वीर सैनिक थे पर राजनीति के कुटिल मार्गों के वे अच्छे ज्ञाता नहीं थे, जिस से कभी कभी भूल करते थे। ( देखिए अंक २ पृ० ३२४ ) ये स्वभाव से मृदुल थे और उदार हृदय होने के कारण किसी पर अविश्वास नहीं करते थे। स्वामी के सर्वस्व नाश हो जाने के दुःख तथा उनका बदला लेने के उत्कट उत्साह से भी उनकी मेधाशक्ति आच्छादित हो रही थी। घटनाओ के वर्णन में यह विशेषता भी है कि सब बातें ठीक वैसी ही होती थीं जैसा कि चाणक्य चाहता था। कहीं भी उनकी इच्छा के विपरीत कोई घटना नहीं हुई। ऐसा जान पड़ता है कि चाणक्य घटनाओं का अनुशासन उसी प्रकार करता था जैसे काठ की पुतली नचाने वाला सूत्रों को हाथ में पकड़कर इच्छानुकूल उनसे कार्य कराता है। इस अवस्था में या तो हम चाणक्य की बहुज्ञता और दूरदर्शिता का परिचय पाते हैं अथवा कवि पर अस्वाभाविकता का दोष लगा सकते हैं। कभी कभी अनुकूल घटनाएँ ठीक समय पर हो जाती है पर आदि से अन्त तक चाणक्य द्वारा प्रेरित सब घटनाओ का सरोतर उतरना नाटक की स्वाभाविकता में वाधक होता है।

चाणक्य पक्षपात का नाम भी नहीं था और शत्रु के उत्तम गुणो की प्रशंसा करने में भी नहीं चूकते थे ( देखिए अंक