पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/९२

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१ पृ० २६५ अं० ७ पृ० ४२४ ) । स्वस्थापित साम्राज्य के प्रधान अमात्य होने पर भी साधु के समान जीवन व्यतीत करना इनके विराग का अत्युत्कृष्ट प्रमाण है ( देखिए कंचुकी का वर्णन अंक ३ पृ० ३४७ ) । इनका अपने शिष्यों पर बड़ा प्रेम रहता था ( देखिए अं० १ पृ० २९४ की टि० ) । इनमें क्रोध, उग्रता तथा हठ की मात्रा भी पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से सब उनसे डरते थे और यदि इन पर आत्मश्लाघा का दोषारोपण किया जाय तो अनुचित है क्योंकि इन्होने असंभव कार्य को भी संभव कर दिखाया था। 'दैव देव आलसी पुकारा' कहने वाले थे जैसा अंक ३ पृ० ३६१ में चंद्रगुप्त से कहा है।

इतिहास से राक्षस के बारे में कुछ नहीं ज्ञात होता। ऐसा कहा जाता है कि सुबुद्धिशर्मा नामक ब्राह्मण चंदनदास के पड़ोस में बसता था और उसकी तीव्र बुद्धि पर प्रसन्न होकर नंद ने उसे मंत्री बना दिया था। राक्षस में मित्रस्नेह अधिक था और उन्होंने भी शत्रु की योग्यता की प्रशंसा कर हृदय की महत्ता दिखलाई है ( अं० ७ पृ० ४२७ ) । ये दैव, अशकुन और शुभाशुभ का विचार रखते थे। इनके सेवकों पर इनका रोब नहीं पड़ता था। चाणक्य मार्ग की कठिनाइयों को कुचलते हुए उन्नत मस्तक होकर चले चलते थे, पर राक्षस दैव को दोष देकर चित्त को शांत कर लेते थे ( अं० ६ पृ० ४०९ ) ।

अन्य पात्र-युगल, चंद्रगुप्त और मलयकेतु, नाटक के नायक तथा प्रतिनायक हैं। चंद्रगुप्त चाणक्य में पूज्य भाव रखता था और उसे उनकी योग्यता तथा नीति कुशलता पर पूर्ण विश्वास था। मलयकेतु राक्षस पर पहले ही से शंका करता था ( अंक०