पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०११

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उच्च स्वर ये तीन पैर हैं ; प्रायणीय और उदयनीय ये दो सिर हैं ; सात गयत्र्यादि छंद इसके हाथ हैं ; मंत्र, ब्राहमण और कल्य तीनों से बंधा हुआ यज्ञ वृषभ शब्द करता है, तेज का देवता मनुष्यों में इनके कल्याण के हेतु प्रवेश करता है। ३. महाभाष्यकार का अर्थ यह श्रुति शब्दरूपी वृषभ के वर्णन में है यथा संज्ञा, क्रिया. उपसर्ग और निपात ये चार इसके सींग हैं; और भूत भविष्यत और वर्तमान ये काल तीन पैर हैं; नित्य और कार्य ये दो सिर हैं: सात विभत्तियाँ हाथ हैं, हृदय, कंठ और सिर तीन स्थानों में बंधा है, वर्षण में इसकी वृषभ संज्ञा है, शब्द करनेवाला महान देव (शब्द स्वरूप) मरण धर्मवाले मनुष्यों में प्रविष्ट होता है। ४. श्रीरामानुज का अर्थ यह श्रुति ईश्वर के वर्णन में है, चारों वेद चार सींग हैं ; नित्य, बद्ध और मुक्त तीनों प्रकार के जीव तीन पाद हैं ; शुद्ध सत्व और गुणात्मक सत्व इसके दो सिर हैं अर्थात् शिरःस्थान में हैं, महत्तत्वादि, सात प्रकृति और विकृति इसके सात हाथ हैं, ऐसा महादेव श्रेष्ठ वृषभ वासुदेव अपने संकर्षण प्रद्युम्न अनिरुद्ध इन तीनों रूपों से मनुष्यों में बंधता नाम प्रकट होता हुआ सब वस्तुओं को रोरवीति अर्थात् नामरूपवत् करता है और मर्त्य नाम चेतनाऽचेतन पदार्थों को अंतरात्मा होकर प्रवेश करता है। ५. श्री विद्यारण्य का अर्थ यह श्रुति प्रणव पर है. अकार. उकार, मकार और नाद ये इसके चार सींग हैं, अध्यात्म, विश्व और तैजस ये तीन पाद हैं, चित् और अचित् ये दो शक्तियाँ शिरस्थान में हैं, भूरादि सात लोक सात हाथ है, विराट्, हिरण्यगर्भ और व्याकृत इन तान प्रकारों से बंधा हुआ वृषभ प्रणव ब्रहम तेजोमयत्व का प्रतिपादन करता है । ६. श्री वल्लभाचार्य जी के मतानुयायी का अर्थ यह श्रुति श्री पुष्टि लीलास्थ पूर्ण पुरुषोत्तम ही का प्रतिपादन करती है, उन श्री पुरुषोत्तम के चार नित्य सिदादि यूथ शृंग अर्थात् उत्तम स्थान में हैं और उनके तीन पाद अर्थात् प्राप्ति होने के साधन तनुजा, चित्तजा और मानसी यह तीन प्रकार की सेवा है ; सख्य और आत्मनिवेदन ये दो भक्तियाँ शिर अर्थात् सिद्ध स्थान में है; प्रवणादिक सात भक्तियाँ हाथ अर्थात् साधन स्थान में हैं ; श्रीपुरुषोत्तम की पूर्वोक्त नौ प्रकार के भक्ति से युक्त जीव अलौकिक सामर्थ्य, सायुज्य और सेवा में उपयोगी देह धारण, इन तीन प्रकार से बंधा है ; और उनकी लीला के प्रवेश के अर्थ धर्म-स्वरूप वर्षा करनेवाले और शोभा करने वाले वृषभ अर्थात् श्रीआचार्य रोरवीति नाम भक्तों को मंत्र और ग्रंथ द्वारा उपदेश करते हैं जिससे वर्ण धर्मा जीव अर्थात सेवामार्गी जीव जब अधिकारी होते है तब महोदेव लीलास्थ पूर्ण पुरुषोत्तम उनमें आवेश करके लीला का अनुभव कराते हैं। ७. श्रीवेणु पर अर्थ यह श्रुति श्रीवेणु का प्रतिपादन करती है ; गान में चार रीति की बानी चार सींग है ; कोमलादि तीन स्वर पाद हैं ; मुख्य छिद्र वा लय और स्वर दो सिर हैं ; सात रंध्र सात हाथ हैं ; अधर दो हस्तों से बंधा है ; ऐसा 'रुद्रो वै वेणुः' इस श्रुति से साक्षागुद्रस्वरूप वेणु 'श्रीगोपालमुपास्महे श्रुतिशिरोवंशीरवैर्दर्शित'. इससे वेणु रूप ही धर्म मनुष्यों में प्रवेश करता है। ८. श्री संगीत पर अर्थ यह अति संगीत का भी प्रतिपादन करती है. इसके तत, बितत, घन और धमन चार सींग हैं. तीन ग्राम तीन पाद हैं, लय और स्वर दो सिर हैं ; सात स्वर वा त्रिमूर्छना सप्तक सात हाथ हैं ; कंठ, नाभि और मुख इन तीन स्थलों से बंधा हुआ संगीत रूपी वृषभ अर्थात्गान ब्रहम मनुष्यों को तन्मय कर देता है 1 ९. साहित्य पर अर्थ यह श्रुति साहित्य का भी प्रतिपादन करती है ; इसके आरभट्यादि कथन चार सींग हैं ; लक्षणा, व्यंजना और ध्वनि तीन पाद हैं ; दृश्य और श्रव्य दो सिर हैं ; चित्रादि सात हाथ है ; गद्य, पद्य, और गीत तीन रीति से बंधा है, ऐसा साहित्य रूपी वृषभ मनुष्यों को चित्त में उल्लास कर आनंद देता है । यथा सुभाषितरसास्वाद बदरोमांचकंचुकाः । Hotel श्रुतिरहस्य ९६७