पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०२९

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धर्मपूर्वक न पाकर लातों स्त्री मार्ग गामिनी हो जाती हैं, लाखो' विवाह होने पर भी जन्म भर सुख नहीं भोगने पाती, लाखों गर्भ नाश होते और लाखों ही बाल हत्या होती हैं, उस पापमयी परम नृशस रीति को इन लोगों ने उठा देने में अपने शक्यभर परिश्रम किया । जन्मपत्री की विधि के अनुग्रह से जब तक स्त्री पुरुष जीएं एक तीर घाट एक मीर घाट रहे, बीच में इस पैमनस्य और असंतोष के कारण स्त्री व्यभिचारिणी पुरुष विषयी हो जायें, परस्पर नित्य कलह हो, शाति स्वप्न में भी न मिले. वंश न चलै, यह उपद्वप इन लोगों से नहीं सहे गये । विधवा गर्भ गिराय, पडित वी या बाबू साहब यह सह लेगे. वरच चुपचाप उपाय भी करा देंगे, पाप को नित्य छिपावेगे. अंततोगत्वा निकाली जाय तो संतोष करेंगे. इस दोष को इन दोनों ने नि:संदेह दूर करना चाहा सवर्ण पात्र न मिलने से कन्या को वर मूर्ख अधा वरच नपुसक मिले तथा घर को कालो कर्कया कन्या मिले जिसके आगे बहुत बुरे परिणाम हो. इस दुराग्रह को इन लोगों ने दर किया । चाहे पढ़े हो चाहे मूर्ख सुपात्र हो कि कपात्र, चाहे प्रत्यक्ष व्यभिचार करें या कोई भी पुरा कर्म कर, पर गुरु जी हैं, पडित जी है. इनका दोष मत कहो, कहोगे तो पतित होगे. इनको दो. इनको राजी रक्यो: इन सत्यानाश संस्कार को इन्होंने तर किया । आर्य जाति दिन दिन हास हो, लोग स्त्री के कारण, धन के या नौकरी व्यापार आदि के लोभ से, मद्यपान के नसके से, बाद में हार कर राजदीय विद्या का अभ्यास करके मुसल्मान वा क्रिस्तान हो जाय, आमदनी एक मनुष्य की भी बाहर से न हो केवल नित्य व्यय हो. अंत में आर्यों का धर्म और जाति कथाशेष रह जाय, किंतु जो बिगड़ा सो बिगड़ा फिर जाति में कैसे आयेगा, कोई भी दुष्कर्म किया तो छिपके क्यों नहीं किया. इसी अपराध पर हजारों मनुष्य आर्य पंक्ति से हर साल छूटते थे. उसको इन्होंने रोका । सब से बढ़ इन्होने यह कार्य किया, सारा आर्यावर्त यो प्रभु से विमुख हो रहा था, देवता विचार तो दूर रहे. भूत प्रेत पिशाच मुरदे, सांप के काटे, बाप के मारे, आत्म हत्या करके मरे, जल, दन या डूब कर मरे लोग, यही नहीं गुसलमानी पोर पैगवर औलिया शहीद धीर ताजिया गाजीमियाँ, जिन्होंने बड़ी मूर्ति तोड़ कर और तीर्थ पाट कर आर्य धर्म विध्वस किया. उन को मानने और पूजने लग गए थे. विश्वास तो मानों छिनाल का अंग हो रहा था, देखते सुनते सज्जा आती थी कि हाय ये कैसे आर्य हैं. किससे उत्पन्न हैं. इस दुराचार की ओर से लोगों का अपनी वक्तृताओं के चपेड़े के बल से मुंह फेर कर सारे आर्यावर्त को शुद्ध 'लायन' कर दिया। 'भीतरी में इन दोनों के जो अंतर है वह भी निवेदन कर देना उचित है । दयानंद की दृष्टि हम लोगों की बुद्धि में अपनी प्रसिद्धि पर विशेष रही । रंग रूप भी इन्होंने कई बदले । पहले केवल भागवत का संडन किया । फिर सब पुराणों का । फिर कई ग्रंथ माने कई छोड़े । अपने काम के प्रकरण माने अपने विरुद्ध को क्षेपक कहा । पहले दिगबर मिट्टी पोते महात्मागी थे । फिर संग्रह करते करते सभी वस्त्र धारण किये । भाष्य में भी रेल तार आदि कई अर्थ जबरदस्ती किए । इसी से संस्कृत विद्या को भली भाँति न जानने वाले ही प्राय : इनके अनुयायी हुए । जाल को छुरी से न काट कर दूसरे जाल ही से जिस को काटना चाहा इसी से दोनों जापस में उलझ गए और इसका परिणाम गृह विच्छेद उत्पन्न हुआ। "केशव ने इनके विरुद्ध जाज काट कर परिष्कृत पथ प्रकट किया । परमेश्वर से मिलने मिलाने की आड़ या बहाना नहीं रखा । अपनी भक्ति की उच्छसित लहरों में लोगों का चित्त आ कर दिया । यद्यपि ग्राहम लोगों में सुरा मासादि का प्रचार विशेष है किंतु इसमें केशव का दोष नहीं । केशव अपने अटल विश्वास पर खड़ा रहा । यद्यपि कुचबिहार के संबंध करने से और यह कहने से कि ईशामसीह आदि उससे मिलते हैं, अतावस्था के कुछ पूर्व उन के चित्त की दुर्बलता प्रकट हुई थी, किंतु वह एक प्रकार का उन्माद होगा पा जैसे बहुतेरे धर्म प्रचारकों ने बहुत बड़ी बातें ईश्वर की आज्ञा पतला दी वैसे ही यदि इन बेचारे ने एक दो बात कही तो क्या पाप किया । पूर्वोक्त कारणों ही से केशव का मरने पर जैसा सारे संसार में आउर हुआ वैसा दयानंद का नहीं हुज । इस के अतिरिक्त इन लोगों के हृदय के भीतर छिपा कोई पुन्य पाप रहा हो तो उस को हम लोग नहीं जानते इस का जानने शाला केवल तू ही है। yok स्वर्ग में विचार सभा ९८५