पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हारिणी । कारिणी ।। गामिका ।। गाड़नी ।। धर्म कर्म शर्म चर्म गर्म धर्म नर्म मर्म प्रेजुडीस लेश मात्र भजिका । मद्यपान घोर रंग दायिनी क्षणैक मात्र संग आतशक सुजाक और फिरंग की ।। पितृ नाम हीन मातृ नासिका। सब जाति पांति मध्य मिष्ट जिह्वा कपाल मुंडनी। मित्र वर्ग युक्त नर्क बूड़नी ।। लोक वेद लाज पत्र फाड़नी । जीवितैव कत्र मध्य द्रव्य लाभ धावमान सांड़नी । सदगृहस्थ गेह की उजाड़नी ।। सम्प्रदायि जीविका प्रदा। टाल हेतु माल पूरनी सदा। नायकावलम्बिनी सुखास्पदा । त्यानमामि रण्डि देवते सदा ।। इट वार बधू स्तोत्र दिव्यादिव्यतरंमहत् । गुप्त गुप्तवती तंने देवैरपि सुदुर्लभम् ।। य: पठेव्यातरुत्थाय सायवासुसमाहित : ।। मुक्तो भवतिसदैव देवगेहादि बन्धनात् ।। जप्त्वा जप्न्ना पुनजात्या पतित्वा चमहीतले । उत्थाप्यचपुनर्जप्त्वा नरोमुक्तिमवाप्नुयात ।। इति स्त्री सेवा पद्धति इस पूजा में अनु जल ही पाद्य है. दीर्घश्वास ही अधर्य हे आश्वासन ही आचमन है, मधुर भाषण ही मधुपर्क है. सुवर्णालंकार ही पुष्य हैं, धैर्य ही धूप है. दीपक है. चुप रहना ही चंदन है और बनारसी साड़ी ही विल्पपत्र हैं, आयु रूपी आँगन में सौंदर्य तृष्णा रूपी खूटा है, उपासक का प्राण पुंज छाग उसमें बंध रहा है, देवी के सुहाग का खणर और प्रीति की तरवार है. प्रत्येक शनिवार की रात्रि इसमें महाष्टमी है, और पुरोहित यौवन है। पदादि उपचार करके होम के समय यौवन पुरोहित उपासक के प्राण समिधों में मोहाग्नि लगाकर सर्वनाश तंत्र से मत्रों से आहुति दे "मानखण्ड के लिए निद्रा स्वाहा बात मानने के लिए माँ बाप का बंधन स्वाहा" "वस्त्रालंकारादि के लिए यथा सर्वस्व स्वाहा" "मन प्रसन्न करने के लिए यह लोक परलोक स्वाहा" इत्यादि. होम के अनन्तर हाथ जोड़कर स्तुति करै । हे स्त्री देवी ! संसार रूपी आकाश में गुब्बारा (बलून) हो, क्योंकि बात बात में आकाश में चढ़ा देती हो, पर जब धक्का दे देनी हो तब समुद्र में डूबना पड़ता है अथवा पर्वत के शिखरों पर हाड़ चूर्ण हो जाते हैं. जीवन के मार्ग में तुम रेलगाड़ी हो, जिस समय रसना रूपी एचिन तेज करती हो एक घड़ी भर में चौदहों भुवन दिखला देती हो, कार्यक्षेत्र में तुम इलेकट्रिक टेलीग्राफ हो. बात पड़ने पर एक निमेष में उसे देशदेशांतर में पहुँचा देती हो तुम भवसागर में जहाज हो, बस अधम को पर करो । acti भारतेन्दु समग्न ९८८