पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०३३

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तुम इंद्र हो श्वसुर कुल के दोष देखने के लिए तुम्हारे सहस नेत्र हैं स्वामी के शासन करने में तुम बज्रपाणि हो । रहने का स्थान अमरावती है क्योंकि जहाँ तुम हो वहीं स्वर्ग है । तुम चन्द्रमा हो तुम्हारा हास्य कौमुदी है उससे मन का अंधकार दूर होता है तुम्हारा प्रेम अमृत है जिसकी प्रारब्ध में होता है वह इसी शरीर से स्वर्ग सुख अनुभव करता है और लोक में जो तुम व्यर्थ पराधीन कहलाती हो यही तुम्हारा कलंक है । तुम बरुण हो क्योंकि इच्छा करते ही अनु जल से पृथ्वी आर्द्र कर सकती हो तुम्हारे नेत्र जल की देखा देखी हम भी गल जाते हैं। तुम सूर्य हो तुम्हारे ऊपर आलोक का आवरण है पर भीतर अंधकार का बास है, हमें तुम्हारे एक बड़ा भर भी आँखों के आगे न रहने से दसों दिशा अंधकारमय मालूम होता है पर जब माथे पर चढ़ जाती हो तब ना हम लोग उत्ताप के मारे मर जाते हैं किम्बहुना देश छोड़कर भाग जाने की इच्छा होती है । तुम वायु हो क्योंकि जगत की प्राण हो तुम्हें छोड़कर कितनी देर जी सकते हैं " एक बड़ी भर तुम्ह बिना देखे प्राण तड़फड़ाने लगते हैं, जल में इब जाने की इच्छा होती है पर जब तुम प्रखर बहती हो किस के बाप की सामर्थ्य है कि तुम्हारे सामने खड़ा रहै । तुम यम हो यदि रात्रि को बाहर से आने में विलम्ब हो, तो तुम्हारी वक्तृता नरक है । वह यातना जिस्म न सहनी पड़े वही पुण्यवान है उसी की अनंत तपस्या है। तुम अग्नि हो क्योंकि दिन रात्रि हमारी हड्डी हड्डी जलाया करती हो । तुम विष्णु हो तुम्हारी नथ तुम्हारा सुदर्शन चक्र है उसके पुरुष असुर माथा मुड़ाकर तटस्थ हा जाते हैं एक मन से तुम्हारी सेवा करै तो सशरीर बैकुण्ठ को प्राप्त कर सकता है। तुम हमा हो तुम्हारे मुख से जो कुछ बाहर निकलता है वही हम लोगों का वेद है और किसी वेद को हम नहीं मानते तुमको चार मुख है क्योंकि तुम बहुत बोलती हो सृष्टिकर्ता प्रत्यक्ष ही हौ पुरुष के मनहस पर चढ़ती हौ चारो वेद तुम्हारे हाथ में है इससे तुमको प्रणाम है। तुम शिव ही सारे घर का कल्याण तुम्हारे आधीन है । भुजंग बेनी धारिणी है (३) त्रिशूल तुम्हारे हाथ में है क्रोध में और कंठ में विष है तो भी आशुतोष हो । इस दिव्य स्तोत्र पाठ से तुम हम पर प्रसन्न हो । समय पर भोजनादि दो । बालकों की रक्षा करो । भृकुटी धनु के सन्धान से हमारा बध मत करो। और हमारे जीवन को अपने कोप से कंटकमय मत बनाओ । अथ मदिरास्तवराज मदिरामादकमद्य सुराहाला हरिप्रिया । गन्धोत्तमाप्रसन्नेरा परिश्चुत वरुणात्मजा ।। कश्य कादम्बरी गन्धमादिनी च परिश्रुता । मानिकाकपिशीमत्ता माधवीकापिशायनम् ।। कत्तोयंकामिनीसीता मदगन्धा मद प्रिया । माध्वीकभधुसन्धानमासवोमदना ऽमृता ।। वीरामनोज्ञा मेधावी विधातामदनीहली । प्रीमेदिनी सुप्रतिभा महानन्दामधूलिका ।। मदोत्कंठागुणारिष्टं मैरेयमदवल्लभा ।। कारणं सरक : सीधुर्मदिष्टाच परिप्लुता ।। तत्वं कल्पस्वादुरसा शुण्डाकपिशमधिजा । हराहरदेवसृष्टा मार्दीकंदुष्टमेव च ।। खरंपानसंद्राक्ष माक्षिकतालमैक्षरणम् । टाकमन्नो विकारोत्थं मधुकनारिकेलज ।। स्तोत्र पंचरत्न ९८९