पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०७६

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उखाड़ के बहाये लाती थी । वेग ऐसा कि हाथी न सम्हल सके पर आश्चर्य यह कि जहाँ अभी डुबाव था वहाँ थोड़ी देर पीछे सूखी रेत पड़ी है और आगे एक स्थान पर नदी और नहर को एक में मिला के निकाला है। यह भी देखने योग्य है। सीधी रेखा की चाल से नहर आई है और डी रेखा की चाल से नदी गई है। जिस स्थान पर दोनों का संगम है वहाँ नहर के दोनों ओर पुल बने हैं और नदी जिधर गिरती है उधर कई द्वार बनाकर उसमें काठ के तखते लगाये हैं जिससे जितना पानी नदी में जाने देना चाहें उतना नदी में और जितना नहर में छोड़ना चाहें उतना नहर में छोड़ें । जहाँ से नहर श्री गंगाजी में से निकला है वहाँ भी ऐसा ही प्रबंध है और गंगाजी नहर में पानी निकल जाने से दुबली और छिछली हो गई हैं परंतु जहाँ नील धारा आ मिली है वहाँ फिर ज्यो' की त्यों हो गई है। हरिद्वार के मार्ग में अनेक प्रकार के वृक्ष और पक्षी देखने में आए । एक पीले रंग का पक्षी छोटा बहुत मनोहर देखा गया । बया एक छोटी चिड़िया है उसके घोंसले बहुत मिले । ये घोंसले सूखे बबूल कांटे के वृक्ष में है और एक एक डाल में लड़ी की भांति बीस बीस तीस तीस लटकते हैं । इन पक्षियों की शिल्पविद्या तो प्रसिद्ध ही है लिखने का कुछ काम नहीं है इसी से इनका सब चातुर्य प्रगट है कि सब वृक्ष छोड़ के कांटे के वृक्षा में घर बनाया है। इसके आगे ज्वालापुर और कनखल और हरिद्वार है जिसका वृत्तांत अगले नंबरों में लिलूंगा। आपका मित्र पुरुषोत्तम शुल्क १० यात्री

भारतेन्दु समग्र १०३२