पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०८२

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सरयू पार की यात्रा 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' खं६सं.८, फरवरी सन् १८७९ में छपा यह यात्रा वृत्तांत बड़ा विस्तृत है। इस लेख में भारतेन्दु बाबू के सूक्ष्म निरीक्षण की प्रवृत्ति के साथ साथ सैलानी प्रवृत्ति का भी पता चलता है। अयोध्या कल साँभ को देगा जले रेल पर सवार हुए, यह गए, वह गए । राह में स्टेशनों पर बड़ी भीड़ न जाने क्यों ? और मजा यह कि पानी कहीं नहीं मिलता था । यह कंपनी यजीद के खानदान की मालूम होती है कि ईमानदारों को पानी तक नहीं देती । या सिप्रस का टापू सरकार के हाथ आने से और शाम में सरकार का बंदोबस्त होने से यह भी शामत का मारा शामी तरीका अखतियार किया गया है कि शाम तक किसी को पानी न मिले । स्टेशन के नौकरों से फर्याद करो तो कहते हैं कि डॉक पहुंचावें, रोशनी दिखलावें कि पानी दें । खैर, ज्यों त्यों कर अयोध्या पहुँचे। इतना ही धन्य माना कि श्रीराम नवमी को रात अयोध्या में कटी । भीड़ बहुत ही है, मेला दरिद्र और मैले लोगों का । यहाँ के लोग बड़े ही कंगल टिरे हैं। इस वक्त दोपहर को अब उस पार जाते हैं। ऊंट गाड़ी यहाँ से पाँच कोस पर मिलती है। कैम्प हरैया बाजार अब तक तीन पहर का सफर हो चुका है और सफर भी कई तरह का और तकलीफ देने वाला । पहिले सरा से गाड़ी पर चले । मेला देखते हुए रामघाट की सड़क पर गाड़ी से उतरे । वहाँ से पैदल धूप में गर्म रेती में सरजू किनारे गुदारा घाट पर पहुंचे । वहाँ से मुश्किल से नाव पर सवार होकर सरजू पार हुए । वहाँ से बेलवां, जहाँ कि डाँक मिलती है और शायद जिसका शुद्ध नाम बिल्व ग्राम है, दो कोस है । सवारी कोई नहीं न राह में छाया के पेड़, न कुँआ न सड़क । हवा खूब चलती थी इससे पगडंडी भी नहीं नजर पड़ती, बड़ी मुश्किल से जले और बड़ी ही तकलीफ हुई । खैर वेलवाँ तक रो रो कर पहुंचे । वहाँ से बैल की डॉक पर नौ बजे रात को वहाँ पहुँचे । यहाँ पहुंचते ही हरैया बाजार के नाम से यह गीत याद आया 'हरैया लागल झबिआ के रे लैहै ना' । शायद किसी जमाने में यहाँ हरैया बहुत बिकती होगी । इसके पास ही मनोरमा नदी है । मिठाई हरैया की तारीफ के लायक है । मालूसाही बिल्कुल बालूसाही भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए । लड्डू 'भूरके' । बरफी हा हा हा! गुण से भी बुरी । खैर, लाचार होकर चने पर गुजर की । गुजर गई गुजरान -क्या झोपड़ी क्या मैदान, बाकी हाल कल के खत में। भारतेन्दु समग्न १०३८