पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०९३

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XE बोली मातृभाषा है। पश्चिमोत्तर देश की कविता की भाषा ब्रजभाषा है यह निर्णीत हो चुकी है और प्राचीन काल से लोग इसी भाषा में कविता करते आये हैं परन्तु यह कह सकते हैं कि यह नियम अकबर के समय के पूर्व नहीं था क्योंकि मोहम्मद मलिक जाइसी और चंद की कविता विलक्षण ही है और वैसे ही तुलसीदास जी ने भी व्रजभाषा का नियम भंग कर दिया । जो हो मैंने आप कई बेरे परिश्रम किया कि खड़ी बोली में कुछ कविता बनाऊ पर वह मेरे नित्तानुसार नहीं बनी इससे यह निश्चय होता है कि ब्रजभाषा ही में कविता करना उत्तम होता है और इसी से सब कविता वजभाषा में ही उत्तम होती है । जैसे ब्रजभाषा में कविता होती है वैसे ही बुंदेलखंड की बोली में भी कविता बनती आती है और अब कविता में यह दोनों बोली मिल गई हैं। परन्तु पूरब में कवियों की वृद्धि होने से उन लोगों ने उस कविता की भाषा अपने चाल पर एक नई भाषा बना ली है यहा यह भी कहना आवश्यक है कि कविता ने पंजाबी और माड़वारी बोली भी ग्रहण किया है और इस भाषा में भी कविता बनाई है । इन सब के उदाहरण नीचे नई और पुरानी कविता में दिखाई जाते हैं जिन से पूर्वोक्त वर्णन स्पष्ट हो जायेगा । ब्रजभाषा, बुंदेलखंड की बोली के उदाहरण-नागभाषा की कविता- "चंद की भाषा में ऐसे शब्द बहुत हैं, अब तक जोधपुर उदयपुर के कवि "नच्चिम'", "बड़ढिया" इत्यादि शब्द का बहुत प्रयोग करते हैं और इसी में बड़ा पांडित्य मानते हैं।" कजली की कविता कजली की कविता बड़ी विचित्र होती है इसके उदाहरण के पूर्व हम इस नष्ट की कुछ उत्पत्ति भी लिखते है । कन्तित देश में गहरवार क्षत्री दादूराय नामक राजा हुए और मांडा विजैपूर इत्यादि देश में उनका राज था । बिन्ध्याचल देवी के मंदिर के नाले के पास उनके टूटे गढ का चिन्ह अब तक मिलता है उन्हीं ने चार भैरों के बीच में अपना गढ़ बनाया था और वह अपने राज में मुसलमानों को गंगाजी नहीं छूने देते थे। उसके देश में अनावृष्टि हुई और उसने उसके निवारणार्थ बड़ा धर्म किया और फिर वृद्धि हुई इसी में उसकी कीर्ति को जो कन्तित की स्त्रियों ने उसके करने और उसकी रानी नागमती के सती होने पर एक मनमाने नाग और धुन में बांध कर गाया इसी से उसका नाम कजली हुआ । कजली नाम के दो कारण है एक तो उस राजा का एक बन था उसका नाम कजली बन था दूसरे उस तृतीय का नाम पुराणों में कजली तीज लिखा है जिस में यह कजली बहुत गाई जाती है। उसकी कीर्ति में ग्रामीणों ने उसी काल में ये छंद बनाये थे । "कहां गये दादुरैया बिन जग सून । तुरकन गांग जुठारा बिन अरजून ।". इस नष्ट कजली को प्राय स्त्रिया आप ही बान लेती हैं परन्तु पुरुषों में भी इसके कवि होते हैं सांप्रत एक पंखा वाला है उसने अनेक कजली बनाई परन्तु इस सबों में पंडित वैणीराम नामक एक ब्राहमण थे उनने कजली बनाई है। बंग भाषा की कविता-बंग भाषा अन हिंदी से बिल्कुल विलक्षण है यह प्रत्यक्ष हैं । पूर्व काल के बंग भाषा के कविगण की जो भाषा है वह विल्कुल ब्रजभाषा ही है । बंगाली विद्वानों में इस विषय में अनेक बादानुवाद है किंतु हम को ऐसा निश्चय होता है कि उन कवियों ने व्रजभाषा ही में कविता करने की चेष्टा की हो तो क्या आश्चर्य है । कवि ककण, चण्डी, विद्यापति, गोविंद बस इत्यादि इनके प्राचीन कविगण की भाषा वर्तमान ब्रजभाषा और मैथिली से बिल्कुल मिली हुई है । यह कोई कविता पांच सौ वर्ष के ऊपर की नहीं किन्तु धन्य काल जिसने भाषा का अब इतना रूपांतर कर दिया । इन्हीं प्राचीन कवियों में से गोविंददास की कविता कौतुकार्य यहां प्रकाश की जाती है । इस कविता में एक अपूर्व और सहज माधुर्य ऐसा है कि अनुभव में बड़ा आनंद होता है। नई भाषा की कविता- "भजन करो श्रीकृष्ण का, मिलकर के सब लोग । सिद्ध होयगा काम और छूटैगा सब सोग ।।" हिन्दी भाषा. २०४९