पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३४

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सखि हरि गोप-वधू संग जीने । प्रथम सर्ग बिलसत बिबिध बिलास हास (सामोद दामोदर:) मिलि केलि-कला रसभीने । ध्रुव स्याम सरीर खौर चंदन की पीत बसन बनमाना । बसन्त रमनि हँसनि झलकत मनि कुंडल लोल कपोल रसाला। हरि बिहरत लाख रसमय बसंत । पीन उरोज भार झुकि हरि को प्रेम सहित गर लाई । जो बिरही जन कहँ अति दुरंत । | गोप-बधू कोउ पंचम रागहिं ऊंचे सुर रहि गाई । बृन्दाबन-कुंजनि सुख समंत । चपल कटाच्छन जुवती-जन-उर काम बढ़ावनहारे । नाचत गावत कामिनी-कंत । मुग्ध बधू कोउ आइ रही मन मैं मनमोहन प्यारे । लै लालत लवंगलता-सुबास । कोउ हरि के कपोल ढिग अपनो नवल कपोलहि लाई । डोलत कोमल मलयज बतास । बात करन मिस चूमति पिय-मुख तन पुलकावलि छाई। अलि-पिक-कलरव लहि आस-पास । जमुना-तीर निकुंज पुंज मैं मदनाकुल कोउ नारी । रह्यो गाँज कुंज गहवर अवास । खैचत गहि हरि को पीतांबर हँसत लरे बनवारी । उनमादित वै नाप मदन-ताप । ताल देत कंकन धुनि मिलि कल बंसी बजत सुहाई । मिलि पथिक बधू ठानहिं बिलाप । ता अनुसार सरस कोउ नाचति लखि हरि करत बड़ाई । अलि-कुल कल कुसुम-समूह-दाप । बिहरत कोउ सँग कोउ मुख चूमत काहू को गर रहे लगाई। बन सोभित मौलासरी कलाप । काहू को सुंदर मुख देखत चलत कोऊ सँग लाई । मृगमद-सौरभ के आलबाल । जो जयदेव कथित यह अद्भुत हरि-वन-विहरनि गाये। सोभित बहु नव चलदल तमाल । वल्लभ-बल हरिचंद सदा सो मंगल फल नव पाये।१७ जुव-हृदय-बिदारन नख कराल । इति सामोद दामोदरो नाम प्रथम सर्ग। फुले पलास बन लाल लाल । बिहाग बन प्रफुलित केसर कुसुम आन । जिय तें सो छबि टरत न टारी । मनु कनक छरी लिए मदन रान । आल सह गुलाब लागे सुहान । रास-बिलास रमत लखि मो तन हँसे जौन गिरिधारी।5. विष बुझे मैन के मनहूँ बान । अधर मधुर मधु-पान छकी बंसी-धुनि देति छकाई । नब नीबू फूलन करि विकास । ग्रीव-इलनि चंचल कटाच्छ मिलि कडल-हिलनि सुहाई। जग निल निखि मनु करत हास । धुंधुगरी अलकन पे प्यारी मोर-चंद्रिका राजै । तिमि बिरही हिय-छेदन हतास । नवल सजल घन पै मनु सुंदर इंद्रधनुष-छबि छाजै । बरछी से केर्ताक-पत्र पास । गोप-बधू मुख चूम अधर अमृत रस लाल लुभाए । बंधजीव-निंदक ओठन पै मंद हँसनि मन भाए। लपटत इव माविका सुबास । भरत भुजन मैं गोप-बधूटिन प्रेम पुलक तन पूरे । 2 फूली मल्ली मिलि करि उजास । मोहे मुनिजन करि काम-आस । कर-पद-गल-मनिगन आभूखन मेटत हिय तम करे । स्याम सुभग सिर केसर-रेखा घन नव ससि छबि पावै । लखि तरून-सहायक रितु-प्रकास । पुसपित लतिका नव संग पाय । जुबती-जूध कठिन कुच मीजत जेहि जिय दया न आवै । पुलकित बोराने आम आय । गडन पर मनि-मंडित कुंडल झलकत सब मन मोहै । लहि सीतल जमुना लहर बाय । सुर-नर-मुनिगन बंदित कटि-तट लटि पीत पट सोहै। पावन वृंदाबन रह्यौ सुहाय । बिसद कदंब तरे ठाढ़े जन-भव-भय-मेटनवारे । जयदेव रचित यह सरस गीत । काम-भरी चितवन लखि मम उर काम-बढ़ावनहारे । रितु-पति विहरन हरि-जस पुनीत । श्री जयदेव कधित यह हरि को रूप ध्यान मन भायो । गावत जे करि 'हरिचंद' प्रीत । बसै सदा रसिकन के हिय 'हरिचंद' अनूप सुहायो ।१८ ते लहत प्रम तजि काम-भीत ।१६ अरी सखि मोहिं मिलाउ मुरारी। मालकोस ' मेटौं काम-कसक तन की गर लाइ रमन गिरिधारी ।६०, भारतेन्दु समग्र ९४