पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३५

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Typre 0/इक दिन गहवर कुंज गई हौं तहाँ छिपे रहे प्यारे । धाइ लगत गर क्यों न पियारी । चितवत चकित चहूँ दिसि मोहि लखि हँसेसुरति सुख-धारे।। अबके करु अपराध छमा री । प्रथम समागम लाजि रही बहु वातन तब बिलमाई । करिहौं फेर न चूक तिहारी । बोलत ही हँसिकै कामो तन नीबी सिथिल कराई। | सुंदर दरसन दै बलिहारी । कोमल सेज सुवाइ मोहिं उर पर भर दे रहे सोई । ___दहत मदन तो बिनु तन जारी । हरि आलिंगत चुंबत ही पियो अधर लपटि तिन दोई। । किंदु बिल्व वारिधि तमहारी । आलस-बस दुग मूंदत ही तिन तन पुलकावलि छाई । गाई कवि जयदेव सँवारी । स्वंग सिथिल तब होत मोहिं भए काम बिबस ब्रजराई। | बिरहातुर हरि कहनि कथारी । बोलत ही मम प्राननाथ बहु कोक-कला बिसतारी । ____जो 'हरिचंद' भक्त-सुखकारी ।२० कुनल कुसुम सित लाख मम कुच जुग नख रेख पसारी। नूपुर बोलत ही पिय प्यारे सुरत बितानहि तान्यो । प्यार तुम बिनु व्याकुल प्यारी । रमत गिरत किंकिनि सिर हि मुख चूमत आंत सुख मान्यौ | काम-बान-भय ध्यान धरत तुव लीजै ताहि उबारी । रति-सुख-समुद-मग मोहि लाख दृग मूदि रहे मद थाके। | चंदन चंद न भावत पावत अति दुख धीर न धार । बिकित सेज परी लखि पियह काम-कलोलन छाके । अहिगन-गरल बगारि सरल तन मलयानिल तेहि जारै। गोप-बधू सखि सों इमि भाखत श्याम काम-रस पूरी ।। अबिरल बरसत मदन-बान लखि उर महँ तुमहिं दराई । गायो सो जयदेव सुकवि 'हरिचंद' भक्ति-ति-मूरी ।१९/ सजग कमल-दल कवच बनाइ छिपावत हियहिं डराई । कुसुम सेज कंटक सों लागत सुख-साजन दुख पावै । हाहा गई कपात ही प्यारी । ब्रत सम मुख तजि तुव रति मनवत कोउ बिधि समय बितावै। निज अपमान मानि मन भारी ।5० अबिरल नीर ढरकि नैननि तें रहत कपोलन छाई । मोहिं घिरो लखि बधुन मंझारी । मनहुँ राहु-बिदलित ससि तें जुग अमृत-धार बहि आई । रिस करि गई उदास बिचारी । मृगमद लै तुव चित्र बनावति व्याकुल बैठि अकेली । निज अपराध जानि भय धारी । काम जानि तेहि लिखति मकर-सर पुनि प्रनवत अाबेली। हौंह ताहि न सक्यौ निवारी । पुनि पुनि कहति अहो पिय प्यारे पाय परति अपनाओ । किमि हवैह करिहै कहा बारी । तुम बिनु दहत सुधानिधि प्रीतम गर लगि मरत जिआओ। का कहिहै मम बिरह-दखारी । विलपति हँसति बिखाद करति रोअति कबहूँ अक्लाई । धन जन जीवन घर परिवारी । कबहुँ ध्यान महं तुमहिं निरखि गर लागति ताप मिटाई । ता बिन वथा जगत-निधि सारी । ऐसहि जो हरि-बिरह-जलधि महँ मगन होइरस चाहै । सो मुख-चंद-जोति उजियारी । सीख-बचन जयदेव कथित 'हरिचंद' गीत अवगाहै ।२१ कोप कुटिल भौंहै कजरारी । तुव बियोग अति व्याकुल राधा । मनहूँ केवल पर भंवर-कतारी । मिलि हरि हरहु मदन-मद-बाधा । बिसरति हिय तें नाहिं बिसारी । कृश तन प्रानहु भर सम जाने । बन बन फिरौं ताहि अनुसारी । हार पहार सरिस उर माने । __बिलपौं बृथा पुकारि पुकारी । कोमल चंदन बिष सम लागे। अब हौं हिय सों ताहि निकारी । सुख सामा लखि संकित भागे। रमिहैं तासों गल भुज डारी । लेत स्वांस गुरु ब्याकुल भारी । मम अपराधन हिये बिचारी । दहति तनहि मदनागि प्रजारी । अतिहि दुखित तेहि जात निहारी । चौंकि चौकि चितवत चहुँ ओरी । पै नहिं जानौ कितै सिधारी । सवत नीर नलिनी मनु तोरी । तासों सकत मनाइ न हारी । तुव बिनु सुमन परस तन जारी । दुग सो छिनहूँ होत न न्यारी । __ सूनी सेज़ न सकत निहारी । आवत जात लखात सदा री । निज कर सों न कपोल उठावै । पै यह अचरज अतिहि हहा री । नव ससि साँझ गहे मनु भावै। Careli गीत गोविनानंद ९५