पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३६

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पुनि पुनि हरि तुव नाम उचारै । चढु पिय कोमल किसलय सेज पिया के उर रह लागी । बिरह मरत कोउ बिधि जिय धारै । हरि बहु-नायक मानी रैनहु जात चली सब बीती । । कवि जयदेव कथित यह बानी । बेगहि चलु करू पीय गनोरथ पालि प्रीति की रीती। 'हरीचंद' हरि-जन-सुखदानी ।२२ | श्री जयदेव-कथित दूती-वच हरि-राधा गुन गाई। लही प्रेम-फल सब 'हरिचंद' जुगल छबि जीअ बसाई।२४ राग मिमोटी तुम बिनु दुखित राधिका प्यारी । बिरह-विथा तें व्याकुल आली । तुव-भय भइ तन सुरति बिसारी । तुव बिनु बहुत विकल बनमाली ।ध्रु॥ अधर मधुर मधु पियत कन्हाई । मलय-समीर झकोरत आवत । तुमहिं सबै दिसि परत दिखाई। तन परसत अति काम जगावत । मिलत चलत उठि तुम कहँ धाई । फूले विविध कुसुम तर डारन । गिरि गिरि परत विरह दुवराई । बिरही जन हिय नखन बिदारन । किसलय वलय विरचि कर धारी । चंद चांदनी सों तन जारत । तुव रति ध्यान जिअति सुकुमारी । तुव बिछुरे पिय प्रान न धारत । कबहुँ रचति रस-रास सवारी । मदन-बान विधि व्याकुल भारी । जानति हमही मदन-मुरारी । तलपि तलपि बिलपत बनवारी । बदति सखिन सों पुनि पुनि आली । मधुर भंवर धुनि सहि नहिं जाई । अबहुँ न क्यों आए बनमाली । मूंदे रहत श्रवन हरिराई । लखि धन सम अंधियार भुलाई। जब निसि बढ़त मदन-रूज भारी । तुव धोखे चूमति गर लाई । मोहत बिकल अधीन मुरारी । तुव बिलंब अति ही अकुलाई। छोड़ि देह - सुख गेह बिसारी । व्याकुल रोअति सेज सजाई । गिरि-बन-वास करत गिरिधारी । श्री जयदेव रचित जो गावै । मुरछि धरनि लोटत बिलखाई। 'हरीचंद' हरि-पद-रति पावै ।२५ चौकि रहत राधे रट लाई । हरि को बिरह-बिलास सुहायो । (नागर नारायण नाम सग) श्री जयदेव सुकबि यह गायो । हा हरि अजहूं बन नहिं आए। 'हरीचंद' जेहि यह रस भावत । बैठे बाट बिलोकत बीती औधह कित बिलमाए ।५० तेहि हरि अनुभव प्रगट लखावत ।२३ सखियन झूठ बोलि बहरायो, हा, अब कौन उपाई । प्राननाथ बिनु बिफल सबै मन नव जोबन सुंदराई । बिलम मत करू पिय सों मित्लु प्यारी। जाके मिलन हेत कारी निसि बन बन डोलत धाई । बैठे कुंज अकेले तुव हित मदन-मधन गिरधारी ।धू० मदन-बान बेदना देत मोहिं सोई निठुर कन्हाई । धीर समीर घाट जमना - तट बन राजत बनमाली । घरह छुट्यो हरिह नहिं आए तो अब मरनहिं नीको । कठिन पीन कुच परसन चंचल कर जुग सोभा-साली। कहा लाभ बिरहागि दाहि तन रखिबो जीवन फीको । ले तुव नाम बदत संकेतहिं मधुरी बेनु बजाई । इत मधु मधुर जामिनी मो हिय बेदन देत प्रजारी । तुव दिसि ते जुरेनु उड़ि आवत रहत ताहि हिय लाई। उत कोउ बड़भागिनि कामिनि सँग हवैहै रमत मुरारी । उड़त पखेरुन गिरत पतीअन तु आगवन बिचारी । कर कंचन कंकन बाजूबंद बिरहानल पि जारै । सेज सँवारत इत उत चितवत चकित पंथ बनवारी । बिष से बिषय साज सब लागत उलटे दुखहिं प्रचार । चंचल मुखर नूपुरहि तजि मुख अंचल ओट दुराई । कुसुम-सरिस मम कोमल तन पैं फूल-माल ह भारी । तिमिर-पुंज चल कुंच सखी मिलि हियरोले न सिराई। तीछन काम-बान सी बेधति बिनु प्यारे गिरिधारी । रति-बिपरीत पिया-उर ऊपर मुक्तमाल ढिग सोही । । हम जाके हित बेत कुंज में बैठी त्यागि हवेली। धन पैं चपल बलाका सह चपला सी रह मन मोही। सो हरि भूलेहु सुमिरत नहिं मोहि छाँड़ी हाय अकेली। किंकिन तजिकै बसन उतारि निरंतर अंतर त्यागी। । इमि बिलपति वृषभानु-लली हरि-बिरह-बिथा अकलाई भारतेन्दु समग्र ९६