पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३९

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-wex द्रवत जि लाजन क्यों रुठी. नव ससि अरुन किरिन सम सिर पैं कुंकुम तिलक बिरावे। निर्वात न क्यों सखि कर गहि बैठी मानिनि हौ झूठी । मनिगन भूखन भूखति सब अंग सुंदर सुभग सरीरा । बिना तुव व्याकुल बनवारी । मंजुल बजुल०।। पुलकित तन रति-आतुर बैठे मोहन पिय बलबीरा । श्री जयदेव कथित हार को बपु जा जिय में छिन आवै ।। कहयौ ले मानिनि मम मानी. सो 'हरिचंद' धन्य जग में निज जीवन को फल पावै ।३५ सूचन नि अभिसार बजावत चल्नु ककन रानी । मिलत लखि तोहि हम सुख पा.. राधे मेरी आस पुजाओ। जुगल रुप जयदेव सुबि लखि हिय महँ पधरा । । प्रानपिया हरि को कहनो करि. होइ हरिचंदह' बलिहारी । मंजुल वंजुल० ।३३ मिलि पिय सा सुख पात्रो ।५० नव किसलय सों सेज सँवारी कोमल पद तहँ धारी । माधव ढिग चल राधा प्यारी ।। हरु पत्ला अभिमाहि अरुन चरन दरसाइ पियारी । बिलस पिया-गन मैं भुज धारी ।धू० अति श्रम भयो प्रानप्यारी तोहिं चरन पलोटौं तेरे । मंजू कुज मधि सेज बिदाई । नपुर धरौं उतारि सेज पर बैठ आइ ढिग मेरे । बिहर तहाँ हँसि सि सुख पाई माधव | बोलि मधुर कछ किन निज पिय को व्याकुल हियो जुड़ावै । कृच-कलसन पर तलिन माला । कह तौ उर सों अंचल कृष्ण उतारि अधिक सुख पावै । बिहर असोक सेज पर बाला ।माधव पिय गर लगन हेत फरकोहैं जुगल कलस कृच प्यारी । बिबिध कृसुम नै कंजन बाँधे । पिय पुर्जाकत हिय लाइ हरत किन मदन-ताप सुकमारी । बिलस कुसुम कोमल तन राधे माधव | निज बिरहालन तपत देखि मोहिं क्यों न दया उर लावै । बहत सीत मलयानिल आई । अधर मधुर रस सुधा स्वाद दै किन मोहिं मरत जियात्रै । बिहर सुरत-रत हरि-गुन गाई माधव० तुव बिन कोकिल नाद सुनत रहे सवन सदा दुख पाई । सघन जघन बरु सफल सुहाए । दैतिन कहं सुख भाखि मधुर क किािन कलित बजाई। लखु पल्लव बल्लिन लपटाए |माधवक नाहक मान ठानि दुख दीनो अब मो दिसलखु प्यारी । गूंजत मधुप मदन मद-माती। नीचे नैन न लाज भरी करु दै रति-सुख बलिहारी । बिहर कृष्ण सँग रति-रस-राती ।माधव श्री जयदेव सुवि हरि भाखित सरस गीत जो गात्र। सुन गावत पिक काम-अधाई। ता बिय में 'हरिचंद' प्रेम-बल काम-बिकार न आवै ।३६ चलु ले निज पिय को हित लाई माधव० कवि जयदेव कोल - रस गावै । यह सुनि राधा पिय सों बोली। 'हरिचंदह सुनि जनम सिरात्रै ।माधव०।३४ मान छौड़ निज प्राननाथ सो गांठ हृदय की खोली ।५० मंगल कलस सरिस सम जुग कृच मृगमद चित्र बनाओ। राधा केलि कुंज महुँ जाई । चंदन से सीतल कर हिय रि जिय को ताप मिटाओ । बैटे बाट बिलोकत निरखे रस उमगे हरिराई शिव काम-बान अलि-कृल-मद-गंजन नैनि अंजन प्यारे । राधा-ससि-मुख निरखि हरखि तन रस-समुद्र लहराने । तुव चूमन सो फेलि रहयौ तेहि देह सँवारि दुलारे । रमन मनोरथ करत मदन-बस बिबिध भाव प्रगटाने । दृग करंग-गति भेड सरिस मम सवन न पिय गिरधारी । काम-फाँस से कुडल प्यारे निज कर देह सँवारी । स्याम सुभग हिय पर इमि सोहत सुंदर मोतिन माला । मेरे मुख पर पीतम सुंदर निज कर बिरचि संवारी । जमुना-जल मनु सेत कमल के सोभित फेन रसाला । मगमद मोचक मेचक तन पैं पीत बसन लपटाओ । नवल कमल पर अलि-कल मानहँ नील कमल पै पसौ पीत पराग सुहायौ । सरिस अलक निरुवारि बगारौ । | सम-सीकरहि पछि मम सिर पिय रसमय तन मैं सुंदर बदन विलोचन जुग मतवारे । निज कर रुचिर बनाओ। सरद सरोवर कमलनि खेलत जुग खंजन अनियारे । कमल बदन में दहें दिसि डल रबि से सुभग लखाहीं ।। पूरन ससि पे मृग-छाया सों मृगमद-तिलक लगायो हिलत अधर मुसुकात मनहूँ पिय मुख चूमन ललचाहीं ।| मदन-चौर धुज से मम सुंदर केस-पास निरुवारी। बारन कसम गुथे मनु घन महँ कहूँ कहूँ चाँदनि राजै। । केकि-पच्छ से बारन गूथह सुंदर कुसुम सँवारौ। गीत गोविंदानंद ९९