पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४०

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सरस सघन मम जघनन पर दोहा फल किकिनि कलित सजाओ । अष्ट-पद चौबीस इमि गाई ककि जयदेव । सदर बसन अभूपन रचि रचि मम अंगान पहिनाओ । भाषा करि हरिचंद सोइ कही प्रेम-रस भेत्र ।१६ इमि राधा-बच सुनत कृष्ण-गर लगि बिहरे सुख पायो । गुप्त मंत्र सम पद सबै प्रगट भाषा माहि । सो जयदेव सुकवि 'हरिचंद' बिहार कुतूहल गायो ।३७ यह अपराध महा क्रियो यामें संसय नाहि ।२ छमिहें निज जन जानि सो जुगल दास नकसीर । | हरिहै अपनो सांझ जिय कठिन मोह-भव-पीर ।३ सतसई-सिंगार [ हरिश्चन्द्रिका खं.२ सं. ८ से ख६ सं. ५ सन् १८७५ तथा १८७८ के बीच प्रकाशित ] सतसई-लिगार मेरी भव-बाधा हरो राधा नागरि सोइ । जा तन की झाई परै स्याम हरित दुति होइ ।१* स्याम हरित यति होइ परे जा तन की झाँई । पाय पलोटत लाल लाखत साँवरे कन्हाई । श्री'हरीचंद' बियोग पीत पट मिलि दृति टोरी । नित हार जा रँग रंगे हरौ बाधा सोइ मेरी । | जि तीरथ हरि-राधिका-तन-दति कर अनुराग । जिहिं ब्रज-लि-निकंज-मग पग पग होन प्रयाग ।२०१ पग पग होत प्रयाग सरस्वति पद की छाया । नख की आभा गंग छाँह सम दिनकर -जाया । छन छवि लखि 'हरिचंद' कलप कोटिन लव सम लजि। भज मकरध्वज मनमोहन मोहन नीरथ जि । ४ सीस मुकुट, कटि काछनी, कर मुरली. उर माल । | सघन कंज छाया सुखद सीनल मन्द समीर । । इहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारी-नाल ।३०१ | मन हवै जान अजौं वह वा जमुना के तीर ।६८१ / सदा बिहारी-लाल बसौ बाँके उर मेरे । वा जमूना के तीर सोई धुनि आँखन आत्रै ! कानन कुण्डल लटकि निकट अलकावलि घेरे । कान बेनु-धुनि आनि कोऊ औचक जिमि नावै। श्री हरिचंद' त्रिभाग ललित मूरत नटवर सी। सुधि भूलति 'हरिचंद' लखत अजहूँ वृंदाबन । टरो न उर तें नैक आज कंजर्जान जो दासी । २ । आवन चाहत अबहिं निकसि मनु स्याम सरस घन ।५. मोहन मूर्रात श्याम की अति अदभुत गल जोइ ।। बरसत सुचि अंतर तऊ प्रतिबिंबित जग होइ ।१६१ सखि सोहत गोपाल के उर गुंजान की माल । प्रतिबिंबित जग होइ कृष्णमय ही सब सूझै । बाहर लात मनौ पिये दावानल की ज्वाल ।३१२ एक संयोग वियोग भेद कछ प्रगट न बुझे। दावानल की ज्यान धूम सह मनहूँ बिराजै । श्री 'हरिचंद' न रहत फेर बाकी कछु जोहन । प्रिया-बिरह दरसाइ मनहुँ संगम सुख साजै । होत नैन-मन एक जगत दरसत तब मोहन ।३ सोई 'श्री हरिचंद' विहँसि कर लेत कबहुँ लाख ।।

  • बोहों के आगे दी गयी संख्या बिहारी रत्नाकर के दोहों की है।

h भारतेन्दु समग्र १००