पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४६

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ए तेरे सब ते विषम ईछन तीछन बान ।३४९. तो परतछ हरि पाइ कहा यह चितवै सब तन ।६० ईछन तीछन बान आज अति अचरज पारे । मिनत करेजे धाय करें बिछुरे तिय मारे । कहत, नटत, रीझत खिझत. मिलत. खिलत. लाज जात काढ़े औरहु धंसत बढ़त उपचार निरखि दिग। भरे भौन में करत हैं नेनन ही सों बात ।३२ जेहि लागत तेहि लगन देत नहिं लगन लाय द्ग ।५६ नैनन ही सों बात करत दोऊ अरुझाने । अलख जुगल के खेल न काहू लखल लखाने । झछे जानि न संग्रह मनु मुंद-निकसे बैन । इन्हें काम सौ काम होइ किन लाखन जन महं । याही ते मानों किये, बानि कों बिधि नैन ।३४६ ये अपने रस-मगन भोर करिहै इनको कह ।६१ बार्तान की विधि नैन किये सब बिधि बिघि जानी । बिन बोलेह जासु मधुर बोलनि रस-सानी। कंज-नर्यान मंजन किये बैठी ब्यौरांत बार । हाव भाव 'हरिचंद' छिपे रस धरे अनूठे। कच-अंगुरिनि बिच दीठि दै निरति नंदकुमार ७८ कहे देत जिय बात करत मुख के छला झूठे ।५७ निरर्खात नंदकुमार सखिन की दीठि बचाए । एक पंथ दै काज कति मुख झलक छिपाए । फिरि फिरि दौरत देखियत, निचले नैक रहै न । छिप्यो चंद 'हरिचंद' सघन घन देइ नुक्रजन । ये कजरारे कौन पै करत कजाकी नैन ।६७० तह सो दै उड़ान निरखत करि दिग जुग कंजन ।६२ करत कजाकी नैन कजा की सैन सैन गति । बटपारे बरजोर विचारे पथिक देत हति । | सब अँग करि राखी सूघर नागर-नेह सिखाइ । कावा सम 'हरिचंद' फिरत कावा धावा धार । रस जुत लेति अनंत गति पुतरी पातुर राइ ।२७४ पेनिज ठौरहि रहत करत अचरज अति फिरि फिर ।५८ पुतरी पातुर-राइ नचति मन हरति सुहावनि । अतिहि चतुर गुन भरी अनेकन भाव दिखाति । खरी भीरहूँ भेदि के कितहूँ ते इत आय । मनहिं हरति 'हरिचद' हठनि नित रंगी मदन-रंग । फिर दीठि जुरि दुहुँनि की सबकी दीठि बचाय । को जोहल नहिं मोहत यह छवि-पूरित सब अँग ।६३ सब की दीठि बचाय नीठि मिलिही ये जाहीं । कोटि उपाय न करौ ठौरही ये ठहराही । दीठि-बरत बाँधी अनि.चढ़ि धावत न डरात । कठिन प्रीति 'हरिचंद' भीत गरुजन हरि सगरी। इत उत ते चित दुहुँन के नट लौं आवत जात ।१९३ करत अपनो काजला निरोप नट लों आवत जात संक बिनु इत उत मिलि भल । करत कला बहु भाँति मैन गुरु मंत्र-जोग-बल । दृष्टिबंध'हरिचंद' होत जग लखत न नीठी। सब ही तन समुहाति छिन, चलति सबन दै पोठि। वाही तन ठहराति यह, किविलनुमा लौ दीठि ।३० खेलि लहत रस-केलि रीझ चित-नट चढ़ि दीठी ।६४ किविलनुमा लौ दीठि एक हरि दिसि ही हेरे। कोटि जतन कोउ करौ अनत कहुँ रुखहु न फेरै।। लीनेहूँ साहस सहस, कीने जतन हजार । पीतम बिन 'हरिचंद' कहौ क्यों अनत लमै मन । लोइन लोइन सिंधु तन, पैरि न पावत पार ।२१३ सरल भाव यों भले लखौ किन छिन सबही तन ।६० पैरिन पावत पार रहत त्रिबली-तरंग फैसि । कुच-गिर सो टकराइ नाभि-भंवरन घूमत घाँस । किपिलनुमा लौ दीठिन कबहूँ प्रन करि फेरे । अरुझत बारहि बार रूप-चादर परि भीने । छवि-सागर ड्रब्यो निज मन-ससि फिरि फिरि हेरे । नैन कहर दरियाव पाइ बूड़त मन लीने ६५ हरि-चुम्बक 'हरिचंद' करत द्ग-लीहहिं करसन । तिनहीं ठहरति जाप करत कावा सब ही तन ।६० पहुँचति डंटि रन सुभट लौं, रोकि सकै सब नाहिं । लाखनहूँ की भीर मैं आँख उतै चलि जाहिं ।१७८ किबिलनुमा लौ दीठि भई सब तजि पिय अनुसर । खि उतै चलि जाहिं स्कत नेकहु नहिं रोके । ताहि देखि 'हरिचंद' प्रम गति सुदृढ़ करी अर । करें आपुनो काज सक बिनु गिनत न टोके । बिन देखें हरि-धाम लखन को तजति न वह प्रन । ' छकी प्रेम 'हरिचंद' परस्पर लगी दरस ठाट । भारतेन्दु समग्न १०६