पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७४

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दैवी जीवन अभयदान दे रसिक जनन के पूरे काम । 'हरीचंद' प्रभु मंगल-मूति गौर-श्याम तन एक सलाम ।१४ प्रबोधिनी बिहाग फूलन को मुलनी नक-बेसर बिच धारी । प्यारे को चित मनों पोहि धरौ प्यारी । मदनबान फूलन की बंदी अनुरागै । देखत ही लालन हिय मदन-बान लागे । बेना सिर फूलाह को देखत मन भूल्यो । रूप की लता में मनों एक फूल फूल्यो । बेनी सिर फूलन की सोहत छवि छाई । अपने कर नंदलाल गौथ के बनाई । नख-सिख तें फूलन के अभरन भव भारी । फूलन के लहंगा अरु फूलन की सारी । फूली छबि देखि देखि नंदलाल फूल्यो । भ्रमर होइ मेरो मन 'हरीचंद' भूल्यो ।१० आजु सखी बृजराज लाडिलो नव दुलह बनि आयो । फूल सेहरो सीस बिराजै फूलन साज सजायो । फूलन के आभरन बिराजत फूलन माल बनाई । फूलन चवर दरत दोऊ सि फूल-छत्र सुखदाई । घोड़ी सी फूल के गहिने फूल लगाम बनाई । फूले फुले सकल बराती तन-धन देत लुटाई । फूले देव बिमानन फूले फूलन की झरि लाई । 'हरीचंद' ऐसी जोरी पै फूलि फूलि र्याल जाई ।११ ग्रीष्म, सारंग आजु नंदलाल पिय कुंज ठाढ़े भये । सवन शुभ सीस पै कलित कुसुमावली । | मनहूँ निज नाथ मुखचंद खि देखिकै खांसत आकाश ते तरल तारावली । बहत सौरभ मिलत सुभग त्रय-विधि पवन गुंजरत महारस मत्त मधुपावली । दास 'हरिचंद' बृज-चंद ठाढ़े मध्य राधिका बाम दक्षिन सुचंद्रावली ।१२ मकर संक्रांति अहो हरि नीको मकर मनाये । चित्र चमन धरि भले लाडिले पुन्य-समय घर आये । कहा परब कियो दियो दान रहा तिल तन प्रगट लखाये । 'हरीदद खिचरी से मिलि क्यों कित तिरबेनी न्हाये।१३ श्री महाप्रभु जी की बधाई, सारंग आजु भयो साँचो मंगल भुव प्रकटे श्री बल्लभ सुखधाम । करुना-सिंधु सकल रस-पोषक पतित-उधारन जाको नाम आजु सुहाग की राति रसीली । गावो नाचो करो बधाई कृजन माँभ. छबीली । गावत घोड़ी देव मनावत रस बरषत भरपूर । 'हरीचंद' को टेरी टेरि के देत सखी सब भूर ।१५ श्री ठाकुरजी की बधाई, बिहाग आयो समय महा सुखकारी । सब गुन-गन- संयुक्त मन-रजित अतिसय परम सुशोभा-धारी । रोहिनि नखत सात सुभ ग्रह सब कह कहिये उममा मति हारी। दिसा प्रसन्न हँसत नभ निर्मल तारन की बाढ़ी छबि भारी । मंगलमय धरनी सब राजत पुर आकर बृज गाँव सुखारी । नदी प्रसन्न सलिल तालन की कमलान सों भइ शोभा भारी । द्विज-अलिकुल सन्नाद करन लगे बन-राजी फूलनि फुलवारी । पुन्य-गंध ले बयी महासुभ वाय सर्वािध सुचि त्रिविध बयारी । द्विज जाचन की साति-गिनि सब प्रगट भई कुंडन ते न्यारी । असुर-द्रोह सब साधू-जन के मन सुप्रसन्न भये ता धारी । अजन जनम को समय जानि के वर्जात लर्जात सब दुन्दुभि भारी । गाइ-उठे गंधर्बरु किन्नर चारन साध तुष्टि मन धारी। नाचन लगी देव असरा सह अति प्यारी सब घर की नारी । मुनि-देवता महा आदित बरसत फूल भरि भरि थारी । सागर के गरजन के पीछे मंद मंद गरजे जल-धारी । आधी राति उदित भयो चंदा आनंद करत हरत अधियारी । भारतेन्दु समग्र १३४