पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७९

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बोलन नहिं कछु मौन हवै रही भौंह जुगल-धनु तान ।५२ जल-बिहार व्याहुला, यथा रुचि नाव चदि दोऊ इत उत डोलें। दोउ जन,गाँठि जोरि बैठारे । छिरकत कर सों जल जत्रित करि गावत हँसत कलोलैं बिहँसत दोउ मुख देखि परस्पर चितवत होत सुखारे । करनधार ललिता अति सुंदर सखि सब खेवत नावै । दूलह दुलहिन को आनंद लखि बढ्यो अनंद अपार । नाव-हलनि मैं पिया-बाहु मैं प्यारी डरि लपटावै । 'हरीचंद' को पकरि नचावत गारि देत ब्रज-नार ।५२ जेहि दिसि करि परिहास मुकावहिं सबही मिलि जल-याने । ग्रीष्म ऋतु, यथा-सचि तेहि दिसि जुगुल सिमिटि मुकि दोउ मिलि बिहरत जमुना-तीर मैं । परहीं सो छबि कौन बखाने । करि कर के जलयंत्र चलावत भीजि रही लट नीर मैं । ललिता कहत दांव अब मेरी तू मों हाथन प्यारी । इत उत तरत सखी जन सोहत मनहुँ कमल जल भीर की मान करन की सौह खाइ तौ हम पहुँचावै पारी । छोट उड़ावत हँसत हँसावत बोलनि मनु पिक कीर की । | हंसत हँसावत छीट उड़ावत बिहरत दोऊ सोहैं । साँवरे अंग गौर तन सोहत लपटनि भौजे चोर की । 'हरीचंद' जमुना-जल फूले जलज सरिस मन मोहै ।५६ 'हरीचंद' लखि तन मन वारत छबि राधा-बलबीर की ।५३ बधाई, यथा-रुचि प्रकटे रसिक जनन के सरबस । जसुमति-उदर अलौकिक वारिधि श्याम कला-निधि निध-रस । न जानी ऐसी हरि करिहैं। पसरति चन्द्रकला सो पूरब उज्ज्वल बिमल बिसद जस। हमरे दै द्विजन के द्वै हैं दया न जिय धरिहैं । 'हरीचंद' ब्रज-वधू चकोरी सहजहि कीन्ही निज बस।५७ होत सामनो जिनि हँसि चितवत भाव अनेक कियो । तिन अब मिलतहि सकुचि इतै सो मुखहू फेरि लियो । प्रगटे प्राननहूँ तें प्यारे । मान्यो तिन्है काम नहिं हमसों तासों निठुर भये । नंद-भवन आनंद-कलानिधि जसुमति मात दुलारे । 'हरीचंद' ब्रजनाथ नाम की लाजहि ज्यों मिटये ।५४ | आजु भयो साँचो आनंद भुव फले मनोरथ सारे । 'हरीचंद गोपिन के सरबस सब ब्रज के रखवारे ।५८ नित्य, यथा-सचि वियोग नागरी रूप-लता सी सोहै। पिया बिनु बीत गये बहु मास । कमल सो बदन पल्लव से कर पद देखत ही मन मोहै। दिन दिन मदन सतावत अति ही बाढ़त बिरह-हरास । अतसी-कुसुम सी बनी नासिका जलष-पत्र से नयन । छन छन छीजत छकत छबीली छलकत छाडि अवास । बिम्ब से अधर कुन्द दन्तावलि मदन-बान सी सयन । बेगि कृपा करि आवहु माधव 'हरीचंद' गुन-रास ।५९ गाल गुलाब कान झुमका मनु करनफूल के फूल । बेनी मानों फूल को माला लखि कै मन रह्यो भूल । दूती, यथा-सचि बाहु सुदार मनाल-नाल सम फूल सरिस सब अंग । प्यारी मो सो कौन दुराव । फूलन ओट लगे हैं दै फल बाढ़त देखि अनंग । कहि किन अरी अनमनी सी क्यों काहे को जिय चाव । जानु बनी रम्भा की खम्भा सोभा होत अपार । काहे को अँसुवन सों मुख धोवत बारी नेक बताव । गूलरि-फूल-सरिस कटि राजत कविजन लेहु बिचार । 'हरीचंद' क्यों कहत न मोसों प्यारी लाइ मिलाव ।६० नारंगी सी एंड़ी राजत पद-तन मनहुँ प्रवाल । और आभरन बिबिध फूल बहु कर पहुँची उर माल । नित्य विहार, विहाग चौताला चम्पै सी देह दमक दवना सी चमक चमेली रंग । प्यारी के कुंज पिय प्यारो आवत मालति महल लपट अति आवत कोमल सब अंग अंग । हरिहि धाय भुजन भरि लीनो। रसिक सिरोमनि नदलाल सोइ भंवर भये है आह । उमगि मिले छतियन सो लपटे दोऊ देखि देखि छबि राधा जू की हरीचंद' बलि जाइ ।५५ चलत न मारग सक्यो रंग-भीनों । राग संग्रह १३९ 12