पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८४

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आज ब्रजराज रघुराज बनि के चढ़े। जा दिन प्रकटी बरसाने में सब सुख धरेउ सोल । नित नव आनंद नित नव मंगल नित नव नौतन केलि। मृकुटि-धनु नयन-शर बिकट संघानि के 'हरीचंद' बिहरति प्रीतम सों कंठ भुजा उर मेलि।१०३ मुकुट की दाल करबाल अलकन कढ़े। कोकिला कड़कि उघरत कड़खैत ही बिहार, बिहाग बदत बन्दी बिरद भंवर आगे बढ़े। रसिक गिरिधर सँग सेज सोई भली । कोक की कारिका बानरी सैन ले रीझि पिय देत सुखदान कीरति-लली । दास 'हरीचंद' रति-बिजय आनंद मढ़े।९९ उझकि झुक चूमि मुख लुटि रस अधर-सुख आशीष, कान्हरा मेटि जिय दुसह दुख करत नव रंग-रली । माई तेरो चिरजीवो गोबिन्द । मुजन सों मुज बंधे अंग प्रति अंग सधे दिन दिन बढ़ो तेज बल धन जन ज्यों दूइज को चंद । कसमसक कुम्हिलात सेज कुसुमन-काली । अंग उमंगे रंग पिया प्यारी संग प्रम-रति पालो गोकुल गोपी गो सुत गाय गोप सानंद । हरो सकल भय निजभक्तन को नासौ सब दुख-दुन्द। जंग पद मदन-मद दलमली । हर्षित देखि गोद में अनुदिन रोहिनि जसुदानंद । सखी 'हरीचंद' रही रीझि तन-मन वारि लगौं बलाय प्रान-प्यारे की मम बैननि 'हरिचंद'।१०० करत गुन-गान रसमत्त चहुँ दिसि अली ।१०४ रसबस में निसि जात न जानी । जाड़े में पौढ़िबे को पद, बिहाग कहत सुनत कछु हँसत हंसावत रजाई करत रजाई मांहीं । दृग जोरत छन-सरिस बिहानी । राजा कृष्ण राधिका रानी दिये बाँह में बांहीं । आलस बिबस जम्हात परस्पर सुखद सेज सोइ राजसिंहासन छत्र ओढ़ना सो है । कहि बलिहार मधुर सुर बानी । चंवर चिकुर डोलत चहुँ दिसिते को वह जो नहिं मोहै। रूह लालची दृग नहिं झपकत बजत निसान जीति जग कंकन किकिन को बहु भाँती। जागत ही निसि सकल सिरानी । भरत बादला मोती दीनी सोइ दीनन मनि-पाती । अरुझे प्रेम-फंद नहिं सुरमत बंधुआ मदनहिं बाँधि मगायो लै पाइन तर पेल्यो । मुख चूमत हरि राधा रानी । कियो खिराज सकल सुख संपति आनंद-सिंधु सकेल्यो। 'हरीचंद' सखि-गन सोइ गावत तब बंदीजन बेद श्वास कढ़ि पढ़यौ बिरद अकुलाई । जुगल-प्रेम की अकथ कहानी ।१०५ कियो स्वेद अभिषेक रीझि कच-खसित कुसुम झर लाई। नित्य राजतिलक सिर दियो महावर अधर-सुधा नजरानो । लालन पौढ़े हो बलि जाऊं। तिहि लहि सर्वस दियो सरोपा साथ नील पट बानो । चाँपों चरन कहानी भाषौं करि मनुहार सोवाऊँ । | नाची बेसर वारिमुखी तहं परमानंद रह्यो छाई । सीत-भीत परदा बहु डारौं नवल अंगीठी लाऊँ। 'हरीचंद' अवसर तब लखि कै प्रेम-जगीर दिखाई।१०१ सरस रंग परिमल कोमल अति चारु रजाई उदाऊँ। मधुरे गुन गाऊँ प्यारे को करि मनुहार मनाऊँ । राधिकानाथ के साथ ब्रज-बाल सब 'हरीचंद' पौरो प्रिय लालन हौ तेरे बलि जाऊँ ।१०६ नवल जमुना-पूलिन रास राच्यो आज । लेत संगीत गत शब्द उधटत बिबिध एक गावत राग सुरन साँच्यो आज । लाल यह तो तुरकन की चाल । तत्तथेई तत्तथेई प्रकट धुनि होत तहँ दुख देनो गल रेति रेति के करनो ताहि हलाल । बजत किकिनि चुरी आनंद माच्यो आज । जब बध करनो होइ बधो तो क्यों खेलत यह ख्याल । थकित सुर गगन 'हरीचंद' निज तियन सह एक हाथ में काम बनैगो टैगे भव-जाल । देखि जब मुदित नंदनंदल नाचो आज (१०२ के मारो के तार मोहन के मोहि करौ निहाल । 'हरीचंद' मति यों तरसाओ बहुत भई नँदलाल ।१०७ नित्य, बधाई रथ सारंग राधिका मंगल को नव बेलि । लाल नहिं नेको रथहि चलावै । भारतेन्दु समग्र १४४ रास, यथा-रुचि