पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०८

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200 'हरीचंद' मल मूत कीट बनि नर-जीवनहि गंबाय दीन सुदामा अजामेल गज गनिका याके साखी । बारंबार पुरान बेद कथि सोइ मुनिवर बहु भाखी । तुझ पर काल अचानक टुटैगा । कह लौं कहीं कहत नहिं आवै करत नाथ जोइ जोई। गाफिल मत हो लवा बाज ज्यों हंसी-खेल में लूटैगा । 'हरीचंद' से कलि के खल पैं कृपा तुमहिं सों होई ।३६ कब आवैगा कौन राह से प्रान कौन बिधि छूटेगा। यह नहिं जानि परैगी बीचहि यह तन-दरपन फूटेगा । ऐसे तुमहीं सों निबहै। तब न बचावैगा कोई जब काल-दंड सिर कूटेगा । ऐसे अधमन को करुनानिधि तुम बिनु कौन चहै । 'हरीचंद' एक वही बचेगा जो हरिपद-रस छूटेगा ।४० मेटि सकल मरजाद श्रुतिन की पतितन को अपनाओ । तिनके दोस कोटि सब भूलो नित नित दया बढ़ाओ । जोव तू महा अधम निर्लज्ज । बहुत कहाँ लौं कहीं और सों कबहुँ न यह बनि आई। अब तो लाजु कछुक सिर गरज्यो आइ काल को बज्ज । 'हरीचंद' तुमसों स्वामी नहिं तो वादिहि सब काई ।३७ फूलि न जौ तू हवै गयो राजा बाबू अमला जज्ज । सब बकरी ही से मरि जैहैं लै दिन चार गरज्ज । वह अपनी नाथ दयालुता तुम्हें याद हो कि न याद हो । विष से विषयन को तजियै तौ डूबन ही के कज्ज । वह जो कौल भक्तों से था किया तुम्हें याद हो कि न याद हो 'हरीचंद' हरि-चरन-अमृत-सर सुनि गज की जैसे ही आपदा न बिलंब छिन का सहा गया। तजि जग छीलर मज्ज 1४१ वहीं दौड़े उठ के पियादे-पा तुम्हें याद हो कि न याद हो । यह जो चाहा लोगों ने द्रौपदी की कि शर्म उसकी सभा में लें। हरि-माया भठियारी ने क्या अजब सराय बसाई है । व बढ़ाया वस्त्र को तुमने जो तुम्हें याद हो कि न याद हो । जिसमें आकर बसते ही सब जग की मति बौराई है। व अबामिल एक जो पापी था लिया नाम मरने पैबेटे का होके मुसाफिर सब ने जिसमें घर सी नेव जमाई है । वनरक से उसको बचा दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो । भांग पड़ी कुएँ में जिसने पिया बना सौदाई है। व जोगीध था गनिका व थी व जो व्याध था व मलाह था । सौदा बना भूर का लइड्र देखत मति ललचाई है। इन्हें तुमने ऊंचों की गति दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो। खाया जिसने वह पछताया यह भी अजब मिठाई है। खाना मील के वे जूठे फल कहीं साग दास के घर पैचल । एक एक कर छोड़ रहे हैं नित नित खेप लदाई है। युही लाख किस्से कहूँ मैं क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो जो बचते सो यही सोचते उनकी सदा रहाई है। जिन बानरों में न रूप था न तो गुनहि था न तो जात थी। अजब भंवर है जिसमें पड़कर सब दुनिया चकराई है। उन्हें भाइयों का सा मानना तुम्हें याद हो कि न याद हो । 'हरीचंद' भगवंत-भजन-बिनु इससे नहीं रिहाई है ।४२ व जो गोपी गोप थे ब्रज के सब उन्हें इतना चाहा कि क्या कहूँ। डंका कूच का बज रहा मुसाफिर जागो रे भाई । रहे उनके उलटे रिनी सदा तुम्हें याद हो कि न याद हो । देखो लाद चले सब पंथी तुम क्यों रहे भुलाई । कहो गोपियों से कहा था क्या करो याद गीता की भी जरा । जब चलना ही निहचै है तो ले किन माल लदाई । वानी वादा भक्त-उधार का तुम्हें याद हो कि न याद हो । 'हरीचंद' हरि-पद बिनु नहिं तो रहि जैहो मुंह बाई ।४३ या तुम्हारा ही 'हरिचंद' है गो फसाद में जग के बंद है। न है दास जन्मों का आपका तुम्हें मृत्यु-नगाड़ा बाजि रहा है सुन रे तू गाफ़िल सब छन । याद हो कि न याद हो ।३८ | गगन भुवन भरि पूरि रहा गंभीर नाद अनहद घन घन । उनपति पहिले से बजता था बचता है औ वाजेगा । मजा कहीं नहिं पाया जग में नाहक रहा भुलाया । इसी शब्द में गुन ले होंगे सदा एक यह राजेगा । छिन के सुख की लालच जित तित स्वान लार लटकाया। यह जग के सामान बीचही भए बीच मिट जावेंगे । यह जग में जिसको अपना कर झूठा भरम बढ़ाया । परस रूप रस गंध अंत में शब्दहि माहि समावैगे। तिन स्वारथ फैसि सूकर कूकर सब दुतकार बताया । काल रूप सच्चिदानंद धन साँचो कृष्ण अकेला है। अपना अपना अपना करके बहुत बढ़ाई माया । 'हरीचंद' जो और है कुछ वह चार दिनों का मेला है ।४४ अंत सबै तजि दीनों मल सम विनको अति अपनाया । जग की लात करोरन खाया । साँचे मीत श्यासुंदर सों छिनहुँ न नेह बढ़ाया । मन से अब तो लाजु बेहाया भारतेन्दु समग्र १६८